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________________ श्राद्धविधि/२६४ छह मास के उपद्रव को दूर कर वह प्रतिमा की पेटी नाविक को देते हुए उसने कहा- "इस पेटी को सिन्धु-सौवीर देश में वीतभयनगर में ले जाकर चौराहे पर जाकर 'देवाधिदेव की प्रतिमा को ग्रहण करो'-इस प्रकार की घोषणा करना । नाविक ने वैसा ही किया। तापसभक्त उदायन राजा और अन्य भी दूसरे दर्शनी लोगों ने अपने-अपने इष्टदेव का स्मरण कर उस पेटी को कुल्हाड़े से तोड़ने, खोलने की कोशिश की परन्तु कुल्हाड़ों के टूटने पर भी वह पेटी नहीं खुली। इससे सभी लोग उद्विग्न हो गये, मध्याह्न भी हो गया था। तभी प्रभावती रानी ने भोजन के लिए राजा को बुलाने के लिए दासी को भेजा। कौतक देखने के लिए राजा ने प्रभावती को बुलाया। देवी ने कहा-"देवाधिदेव अरिहन्त ही हैं, दूसरे नहीं, कौतुक देखना हो तो देख लें।" इस प्रकार कहकर रानी ने यक्षकर्दम से पेटी का अभिषेक कर पुष्पांजलि डालकर "देवाधिदेव मुझे दर्शन दो" इस प्रकार बोलने के साथ ही वह संपुट प्रातःकाल के कमलकोश की भाँति स्वयं खुल गया। उसमें से अम्लान माला से युक्त प्रतिमा प्रगट हुई और इससे जैनशासन की प्रभावना हुई। उसके बाद उस रानी ने नाविक का योग्य सत्कार कर, उस प्रतिमा को उत्सवपूर्वक अन्तःपुर में ले जाकर नवीन निर्मित मन्दिर में उसकी स्थापना की और प्रतिदिन उसकी त्रिकाल पूजा करने लगी। एक बार रानी के आग्रह से राजा वीणा बजा रहा था और रानी उसके आगे नाच कर रही थी। राजा ने नृत्य करती रानी के मस्तक को नहीं देखा........उस क्षोभ से राजा के हाथ में से वह वीणा नीचे गिर गयी। नृत्यरस का भंग होने से रानी नाराज होगयी तब राजा ने सही-सही बात कह दी। एक बार दासी द्वारा लाये गये सफेद वस्त्र को लाल देखने के कारण प्रभावती रानी को गुस्सा आ गया, क्रोध से उसने दासी पर दर्पण से प्रहार किया, जिससे दासी तुरन्त मर गयी। उसके बाद उस रानी को सफेद दिखाई देने लगा। उस दनिमित्त तथा राजा को मस्तक नहीं दिखायी देने वाले दुनिमित्त से अपना अल्प प्रायुष्य जानकर तथा स्त्रीहत्या से अपने पहले व्रत का भंग देख कर वह विरक्त बन गयी और राजा के पास दीक्षा की अनुमति लेने गयी। राजा ने कहा--"तुम देव बन जाओ तो मुझे सम्यग्धर्म में जोड़ना" इस प्रकार कहकर राजा ने अनुमति दे दी। रानी ने उस प्रतिमा की व्यवस्था का कार्यभार देवदत्ता नाम की कुब्जा दासी को सौंप दिया और उत्सवपूर्वक दीक्षा ग्रहण कर अनशन कर सौधर्म देवलोक में देव बनी। देव के बोध देने पर भी राजा ने तापस-भक्ति नहीं छोड़ी-"अहो, दृष्टिराग का त्याग कितना दृष्कर है।" उसके बाद तापस के रूप में वह देव राजा को दिव्य अमत फल देने लगा। राज उन फलों को खाने में लुब्ध हो गया। वह तापस अपनी शक्ति से एकाकी राजा को अपने आश्रम में ले गया। मायावी तापस राजा को मारने लगे तब राजा भागा। आगे उसे जनसाधु मिले, उसने जनसाधु की शरण स्वीकार की। साधुओं ने उसे कहा-“मत डरो।" साधुओं ने उसे धर्म समझाया तब राजा ने वह धर्म स्वीकार किया। उसके बाद देव ने राजा को अपनी ऋद्धि बताकर उसे जैनधर्म में दृढ़ कर उसे कहा-"आपत्ति में मुझे याद करना"-इस प्रकार कहकर वह देव अदृश्य हो गया।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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