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________________ श्राद्धविधि/२६० 卐 मित्रता मित्र हमेशा विश्वसनीय होने से अवसर पर सहायता करने वाले होते हैं। मित्र की तरह वणिकपुत्र तथा नौकर आदि भी त्रिवर्ग की साधना में सहायक हों, वे ही रखने चाहिए। उनमें उत्तम प्रकृति, सार्मिक भक्ति, धर्य, गम्भीरता. चातुर्य, सदबुद्धि आदि गुण अवश्य होने चाहिए। इसके दृष्टान्त आदि व्यवहार-शुद्धि प्रकरण में पहले कहे जा चुके हैं। * जिनमन्दिर * ऊँचे तोरण, शिखर व मण्डप से सुशोभित न्यायोपार्जित धन से विधिपूर्वक, भरतचक्री आदि की तरह मरिण-स्वर्णादिमय अथवा विशिष्ट पाषाणादिमय अथवा विशिष्ट काष्ठ-ईंट आदि मय मन्दिर बनाना चाहिए। उतनी शक्ति न हो तो तृणकुटी भी बनानी चाहिए। कहा है "न्यायोपार्जित धन वाला, बुद्धिमान, शुभ परिणाम वाला, सदाचारी श्रावक गुरु आदि से मान्य जिनमन्दिर निर्माण का अधिकारी होता है।" "जीवात्मा ने शुभ परिणाम के भाव बिना भूतकाल में अनन्त बार जिनप्रतिमाओं का निर्माण किया, परन्तु सम्यक्त्व का एकांश भी सिद्ध नहीं हुआ।" "जिन्होंने जिनमन्दिर और जिनप्रतिमा का निर्माण नहीं किया, साधु की पूजा नहीं की और दुर्धरव्रत को धारण नहीं किया, सचमुच, वे अपने जन्म को हार गये।" “जो भक्तिपूर्वक परमगुरु (जिनेश्वर भगवान) की तृणमय कुटीर का भी निर्माण करता है और जो भक्ति से प्रभु को एक पुष्प भी चढ़ाता है, उसके पुण्य का कोई प्रमाण नहीं है।" __"जो मनुष्य बड़ी दृढ़ और कठोर शिलाएँ गड़वाकर शुभमति से जिनभवन कराते हैं उनकी बात ही क्या ? वे बहुत ही धन्यवाद के पात्र हैं तथा वे वैमानिक देव बनते हैं ।" 9 जिनमन्दिर निर्माण-विधिक जिनमन्दिर के निर्माण में शुद्ध भूमि, शुद्ध दल (पत्थर-ईंट आदि) तथा नौकर को न ठगना एवं सूत्रधार का सम्मान आदि पूर्वोक्त गृहनिर्माण-विधि की भाँति यथोचित एवं सविशेष जानना चाहिए। कहा है-"धर्म के लिए उद्यत हुए पुरुष को किसी भी प्रकार की अप्रीतिकर प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार (अप्रीतिवर्जन से) संयम भी कल्याणकारी है। यहाँ पर भगवान महावीर प्रभु का उदाहरण समझना चाहिए।" 'मेरे रहने से तापसों को अप्रीति होगी और अप्रीति परम प्रबोधि का बीज है"-यह बात जानकर महावीर प्रभु ने चातुर्मास काल में ही विहार कर दिया था। जिनमन्दिर के लिए काष्ठ आदि भी शुद्ध होने चाहिए। देवतादि के उपवन से लाया हुआ द्विपद-चतुष्पद आदि को सन्ताप देकर प्राप्त किया हुआ, स्वयं द्वारा बनाया हुआ काष्ठ आदि अशुद्ध कहलाता है। रंक मजदूर लोगों को अधिक मजदूरी देने से वे खुश होते हैं और पहले से अधिक काम करते हैं।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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