SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि/२५० शीलसम्पन्न होने से उसने सतियों में विशिष्ट प्रतिष्ठा प्राप्त की। श्रावक धर्म का अच्छी तरह से पालन करती हुई उसने अंतिम तीर्थंकर के हाथ से जैन दीक्षा स्वीकार की। उस लक्ष्मणा साध्वी ने एक बार चिड़िया के युगल की काम-क्रीड़ा को देखकर विचार किया--"अरिहन्तों ने काम की अनुमति क्यों नहीं दी होगी, वे तो अवेदी होते हैं अतः वे सवेदी के दुःख को नहीं जानते हैं।" क्षणभर के बाद ही उसे पश्चात्ताप हो गया । “इसकी मैं कैसे आलोचना करूंगी"- इस प्रकार लज्जित होने पर भी शल्य रहने पर सर्वथा शुद्धि नहीं होती है। इस प्रकार अपने आपको प्रोत्साहित कर ज्योंही वह गयी, त्योंही अचानक पैर में काँटा लगने से अपशकुन की बुद्धि से क्षुब्ध हो गयी और “जो इस प्रकार विचार करता है, उसे क्या प्रायश्चित्त आता है।" इस प्रकार दूसरे के बहाने उसने प्रायश्चित्त किया परन्तु लज्जा व अपने बड़प्पन की हानि का विचार कर स्वयं के नाम से प्रायश्चित्त नहीं किया। उस प्रायश्चित्त में उसने पचास वर्ष तक तीव्र तप किया। कहा है-पारणे में नीवि करके छ?, अट्ठम, चार उपवास व पाँच उपवास का तप दस वर्ष तक किया। उपवास के पारणे उपवास दो वर्ष, एकासणा द्वारा दो वर्ष, मासक्षमण को तपश्चर्या सोलह वर्ष और आयंबिल की तपश्चर्या बीस वर्ष तक की। इस प्रकार लक्ष्मणा साध्वी ने पचास वर्ष का तप किया। इस तप के साथ-साथ उसने आवश्यक आदि क्रियाएँ भी कों एवं अदीनमन से उसने यह तप किया-फिर भी उसकी शुद्धि नहीं हुई, बल्कि आर्तध्यान से मरकर दासी आदि के असंख्य भवों में अत्यन्त वेदना को सहनकर वह आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर पद्मनाभ स्वामी के शासन में मोक्ष में जायेगी। कहा भी है-"शल्ययुक्त जीव कष्टदायो घोर तीव्र तप को दिव्य हजार वर्ष तक करे तो भी उसका वह तप निष्फल है।" "कुशल वैद्य भी अपना रोग दूसरों को कहता है, इसी प्रकार प्रायश्चित्त को जानने वाले को भी अपने शल्य का उद्धार दूसरे के पास कराना चाहिए। (7) आलोचना करने से तीर्थंकर की आज्ञा की आराधना होती है। (8) आलोचना करने से साधक शल्यरहित हो जाता है। उत्तराध्ययन के उनतीसवें अध्ययन में कहा है- "हे भगवन्त ! आलोचना से जीव को क्या लाभ होता है ?" "हे गौतम ! आलोचना से माया, निदान और मिथ्यात्व शल्य तथा अनन्त संसार की वृद्धि का नाश होता है तथा ऋजुभाव पैदा होता है। ऋजुभाव को प्राप्त अमायावी जीव स्त्रीवेद, नपुंसक वेद का बन्ध नहीं करता है तथा पूर्व में बँधा हा हो तो उसकी निर्जरा करता है।" ये आलोचना के गुण हैं। श्राद्धजितकल्प की टीका में से उद्धृत की गयी यह आलोचना विधि है। बालहत्या, स्त्रीहत्या, देव द्रव्यादि का भक्षण, राज-रानी से भोग आदि बड़े पाप तीव्र अध्यवसाय से निकाचित भी किये हों तो भी विधिपूर्वक आलोचना करने से व गुरुप्रदत्त प्रायश्चित्त करने से उसी भव में भी शुद्ध हो जाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो दृढ़प्रहारी आदि की उसी भव में सिद्धि सम्भव ही नहीं थी अतः प्रति चातुर्मास अथवा प्रतिवर्ष आलोचना अवश्य करनी चाहिए।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy