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________________ श्राद्धविधि/२४८ आलोचना करते समय पासत्था आदि को गुरु-वन्दन की विधि से वन्दन करना चाहिए, क्योंकि विनय ही धर्म का मूल है। यदि पासत्या आदि अपने आपको गुणहीन समझकर वन्दन न करायें तो उन्हें पासन आदि प्रदान कर प्रणाम करके आलोचना करनी चाहिए। पश्चात्कृत के पास आलोचना करनी हो तो उसमें इत्वर सामायिक का आरोपण कर व लिंग प्रदान कर विधिपूर्वक आलोचना करनी चाहिए। ... पासत्था आदि का भी प्रभाव हो तो जैसे राजगृह में गुणशिलादि में जहाँ अरिहन्तों व गणधरों ने बहुत बार प्रायश्चित्त दिया है उसे जिस देव ने देखा हो, वहाँ उस सम्यग्दृष्टि देव की अट्ठम आदि से आराधना करके उन्हें प्रत्यक्ष करके आलोचना करनी चाहिए। कदाचित् उस समय उस देव का च्यवन हो गया हो और अन्य देव उत्पन्न हुआ हो तो वह महाविदेह में अरिहन्त परमात्मा को पूछकर प्रायश्चित्तं देता है। उनका भी योग न हो तो अरिहन्त-प्रतिमा के आगे स्वयं आलोचना कर प्रायश्चित्त स्वीकार करना चाहिए। उसका भी योग न हो तो पूर्व अथवा उत्तर सम्मुख अरिहन्त या सिद्ध की साक्षी में आलोचना करनी चाहिए, परन्तु आलोचनारहित नहीं रहना चाहिए, क्योंकि जो शल्ययुक्त होता है, वह आराधक नहीं होता है। अगीतार्थ चारित्र की शुद्धि को नहीं जानता है और न्यूनाधिक आलोचना देता है, वह स्वयं को तथा आलोचक को भी संसार में डुबोता है । जिस प्रकार बालक कार्य अथवा अकार्य को सरलता से कह देता है, उसी प्रकार माया व मद से रहित होकर आलोचना करनी चाहिए। मायादि दोष से रहित, प्रतिसमय वर्धमान संवेग वाला पुनः उस अकार्य को नहीं करने के निश्चयपूर्वक अपने अकार्य की आलोचना करता है। लज्जादि तथा रसादि गारव के कारण, तप का अनिच्छुक तथा बहुश्रुतपने के अहंकार के कारण अपमान होने के भय से, प्रायश्चित्त अधिक मिलने के भय से जो गुरु को अपने दोष नहीं कहता है, वह पाराधक नहीं होता है। उन-उन सूत्रों के द्वारा अपने चित्त को संवेग से भावित करके तथा शल्य को नहीं निकालने के दुष्परिणामों का विचार करके आलोचना करनी चाहिए। शल्य को नहीं निकालने के विपाक को बताने वाले जुदे-जुदे सूत्रों के द्वारा चित्त को संवेगी बनाकर पालोचना करनी चाहिए। ॐ पालोचक के दस दोष (1) वैयावच्च आदि से गुरु को प्राजित कर जो पालोचना करता है कि "गुरु मुझे कम प्रायश्चित्त देंगे"-इस प्रकार का अभिप्राय होने से यह दोष है। (2) "ये गुरु अल्प दण्ड देने वाले हैं" इस प्रकार अनुमान कर जो आलोचना करता है। (3) जिन दोषों को दूसरों ने देख लिया हो उनकी आलोचना करे और दूसरों के द्वारा नहीं देखे हुए दोषों की आलोचना नहीं करे ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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