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________________ श्राद्धविधि / २४६ (4) कुतीर्थिकों की हीलना होती है क्योंकि उनमें इस प्रकार के महासत्त्वशालियों का अभाव है । (5) प्रतिमा समाप्त करने वाले साधु का सत्कार करना चाहिए - यह प्राचार भी है। (6) तीर्थ की वृद्धि होती है । प्रवचन के अतिशय को देखकर बहुत से लोग संसार से विरक्त होकर प्रव्रज्या स्वीकार करते हैं, उससे तीर्थ की वृद्धि भी होती हैं । यथाशक्ति संघ का भी बहुमान करना चाहिए। तिलक करना, चन्दन, जौ आदि, कपूर कस्तूरी आदि सुगंधित वस्तु का लेप करना, सुगन्धित पुष्प प्रदान करना, भक्तिपूर्वक नारियल आदि व विविध तांबूल प्रदान कर शासन की प्रभावना करनी चाहिए। " शासन की उन्नति से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होता है ।" कहा है"अपूर्व ज्ञानग्रहण, श्रुत-भक्ति-प्रवचन की प्रभावना आदि कार्यों से जीव तीर्थंकरपने को प्राप्त करता है ।" "भावना स्वयं को ही मोक्ष देने वाली है, जबकि प्रभावना स्व-पर दोनों को मोक्ष देने वाली है । 'प्र' पूर्वक भावना से प्रभावना की अधिकता युक्त ही है । * प्रालोचना * प्रतिवर्ष कम-से-कम एक बार गुरु के पास अवश्य आलोचना करनी चाहिए। कहा है-“प्रतिवर्ष गुरु के आगे प्रायश्चित्त अवश्य लेना चाहिए । आलोचना से शुद्धि करने से आत्मा दर्पण की तरह उज्ज्वल बनती है ।" श्री श्रावश्यक नियुक्ति श्रागम में इस प्रकार कहा गया है-. "चउमासी तथा संवत्सरी में आलोचना करनी चाहिए। पूर्व में ग्रहण किये हुए अभिग्रहों को कहकर नवीन अभिग्रह लेने चाहिए ।" श्राद्धजित कल्प आदि में इस प्रकार विधि कही गयी है - " पाक्षिक, चातुर्मासिक, संवत्सरी के दिन में, उत्कृष्ट से बारह वर्ष जितने काल में भी गीतार्थ गुरु के पास अवश्य आलोचना करनी चाहिए ।" आलोचना करने के लिए सात सौ योजन के क्षेत्र में तथा बारह वर्ष तक गीतार्थ गुरु की अवश्य शोध करनी चाहिए । 15 श्रालोचना कराने वाला गुरु आलोचना कराने वाले गुरु गीतार्थं होने चाहिए अर्थात् निशीथ आदि सूत्र के ज्ञाता होने चाहिए । कृतयोगी अर्थात् मन, वचन और काया के शुभ व्यापार वाले अथवा विविध तप करने वाले होने चाहिए अर्थात् विविध शुभ ध्यान व तप विशेष से अपनी आत्मा व शरीर को संस्कारित किये हुए होने चाहिए । निरतिचार चारित्र वाले होने चाहिए । आलोचना करने वाले को, बहुत-सी युक्तियों से भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त तथा तप आदि स्वीकार कराने में कुशल होने चाहिए । प्रायश्चित्त में दिये गये तप के श्रम को जानने वाले होने चाहिए। आलोचक के भयंकर दोष का श्रवण करने पर भी विषाद नहीं करने वाले होने चाहिए बल्कि अन्य अन्य वचन तथा वैराग्यगभित वचनों के द्वारा आलोचक को प्रोत्साहित करने वाले होने चाहिए । 1. ज्ञानादि पाँच प्रकार के आचारों से युक्त होने चाहिए । 2. आलोचक के अपराध को उनमें बराबर याद रखने की शक्ति होनी चाहिए ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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