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________________ श्राद्धविधि/ * श्रावक के व्रत-भंग (भेद) * उत्तरगुणधारी एवं अविरत श्रावक रूप दो भेद सहित, द्विविध (करना-कराना), विविध (मन, वचन, काया) आदि भंगों से योजित बारह व्रतों के एकसंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी, चतुष्कसंयोगी आदि भंगों से श्रावक के बारह व्रतों के तेरह सौ चौरासी करोड़, बारह लाख, सत्यासी हजार, दो सौ (१३८४१२८७२००) भंग होते हैं। एक उत्तरगुणधारी एवं एक केवल सम्यक्त्वधारी के दो भंग मिलाने पर १३८४१२८७२०२ भंग होते हैं। यहाँ पर उत्तरगुण यानी विविध तप और अभिग्रह; इन भंगों का विस्तार लोकप्रकाश के तीसवें सर्ग में है। शंका-समाधान प्रश्न-श्रावक के उपर्युक्त भंगों में मन, वचन और काया के करण एवं करावण के ही . भंगों का समावेश किया गया है-अनुमोदन के नहीं। ऐसा क्यों ? उत्तर-श्रावक के सभी पच्चक्खाण द्विविध-त्रिविध भंग के ही (छह कोटि) होते हैं त्रिविधत्रिविध (नवकोटि) के नहीं। श्रावक के लिए, व्रत लेने के पूर्व स्वयं अथवा पुत्र मादि के द्वारा प्रारम्भ किये गये व्यापार आदि में लाभ होने पर उसके अनुमोदन का त्याग शक्य नहीं है। इसी कारण श्रावक के व्रतों में अनुमोदन का पच्चक्खाण नहीं होता है। फिर भी 'प्रज्ञप्ति' आदि ग्रन्थों में द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव का आश्रय कर श्रावक के लिए विशेष पच्चक्खाण के रूप में त्रिविध-त्रिविध का भी विधान किया गया है। जैसे—कोई दीक्षा का अभिलाषी हो परन्तु पुत्र आदि सन्तति के पालन के कारण उसे विलम्ब होता हो और इस कारण प्रतिमा स्वीकार करता हो अथवा कोई स्वयम्भूरमण समुद्र आदि में रहे मत्स्यों के मांस मादि या मनुष्यक्षेत्र से बाहर स्थूल हिंसादि का त्याग करता है अथवा अवस्था विशेष से प्रत्याख्यान करता है तो वह त्रिविध-त्रिविध पच्चवखाण कर सकता है, किन्त वह पच्चक्खाण अल्पवस्तु विषयक होने के कारण उसकी विवक्षा नहीं की गई है। महाभाष्य में भी कहा गया है-कुछ आचार्यों का ऐसा भी मत है कि गृहस्थों को त्रिविध-त्रिविध पच्चक्खाण नहीं है। परन्तु प्रज्ञप्तिसूत्र में निम्नलिखित कारण उपस्थित होने पर श्रावकों को त्रिविध-त्रिविध पच्चक्खाण करने का विधान किया गया है। 'कुछ आचार्यों का कथन है कि किसी गृहस्थ को दीक्षा की इच्छा हो किन्तु किसी कारण अथवा किसी के आग्रह से पुत्र आदि संतति के पालन के लिए काल-विलम्ब करना पड़े तो श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा-वहन के समय जो कुछ भी त्रिविध-त्रिविध पच्चक्खाण करना पड़े तो उन्हें करने की छूट है।' विशेषावश्यक भाष्य में कहा है कि बिना प्रयोजन वाली वस्तु अर्थात् कौए आदि के मांस का पच्चक्खाण, अप्राप्य वस्तु अर्थात् मनुष्यक्षेत्र से बाहर रहे हाथीदांत अथवा चीते मादि के चर्म
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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