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________________ श्राद्धविधि / २१२ 5 श्रानुपूर्वी श्रादि 5 नवकार वलक में पाँच पदों की अपेक्षा एक पूर्वानुपूर्वी, एक पश्चानुपूर्वी और 118 अनानुपूर्वी होती हैं । नवकार के नौ पदों की अपेक्षा अनानुपूर्वी की संख्या तीन लाख बासठ हजार आठ सौ और अठत्तर होती है । अनूपूर्वी आदि के संदर्भ में विस्तृत जानकारी पूज्य श्री जिनकीर्ति सूरि विरचित 'श्रीपंचपरमेष्ठि- स्तव' से समझनी चाहिए। इस प्रकार नवकार गिनने से दुष्ट शाकिनी, व्यन्तर, वैरी, ग्रह, महारोग आदि का शीघ्र नाश होता है और परलोक की अपेक्षा अनन्त कर्मों का क्षय होता है। कहा है "छह मास अथवा एक वर्ष के तीव्र तप से जो निर्जरा होती है, उतनी निर्जरा नवकार की अनानुपूर्वी गिनने से अर्धक्षरण में हो जाती है ।" शीलांगरथ आदि गिनने से भी मन, वचन और काया की एकाग्रता होती है और उससे त्रिविध ध्यान होता है । ग्रागम में भी कहा है- " भांगिक श्रुत गिनने से साधक त्रिविध ध्यान में रहता है।" इस प्रकार स्वाध्याय करने से, धर्मदास की तरह स्वयं का कर्मक्षय और दूसरे को प्रतिबोध आदि अनेक गुण प्राप्त होते हैं । * धर्मदास का दृष्टान्त धर्मदास प्रतिदिन सायंकाल प्रतिक्रमण करके स्वाध्याय करता था। उसके पिता सुश्रावक होने पर भी स्वभाव से क्रोधी थे। एक बार धर्मदास ने अपने पिता को क्रोधत्याग के लिए उपदेश दिया, जिसे सुनकर वे कुपित हो गये और मारने के लिए काष्ठ उठाकर दौड़ते हुए, स्तम्भ से टकराने के कारण मरकर साँप बन गये । एक बार अंधेरे में वह सर्प धर्मदास को काटने के लिए आ रहा था । उस समय धर्मदास स्वाध्याय में था --" क्रोधी व्यक्ति करोड़ों वर्षों में किये गये सुकृत (पुण्य) को भी मुहूर्त मात्र में हार जाता है और दोनों भवों में दुःखी होता है ।" यह बात सुनते ही उस साँप को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसके बाद अनशन करके वह मरकर सौधर्म देवलोक में देव बना और अपने पुत्र सर्वकार्यों में सान्निध्य करने लगा । इसी प्रकार स्वाध्याय करने में लीन उस धर्मदास को अन्त में केवलज्ञान भी उत्पन्न हुआ । प्रतः प्रतिक्रमण के बाद स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए । 5 स्वजन - उपदेश फ्र उसके बाद सामायिक पार कर अपने घर जायें और अपनी पत्नी, पुत्र, मित्र, भाई, नौकर बहिन, पुत्रवधू, पुत्री, पौत्र, पौत्री, चाचा, चचेरा भाई तथा अपने जाति-बन्धु श्रादि के सामने
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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