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________________ श्राद्धविधि/२०६ कहा है- “गमनागमन, विहार, सूत्र के प्रारम्भ में रात्रि में, स्वप्न देखने पर, नाव में बैठने पर तथा नदी पार करने पर ईरियावहिय-प्रतिक्रमण करना चाहिए।" इसके अनुसार उपयुक्त ईरियावही गमनविषयक है। साधु के अनुसार श्रावक को ईरियावहिय प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग और चउविसत्थो भी बताये जाते हैं तो उसी के अनुसार प्रतिक्रमण भी क्यों नहीं बताया जाता ? यानी जैसे साधु के अनुसार श्रावक के लिए कायोत्सर्ग और 'चउविसत्थो' माने गये हैं वैसे ही प्रतिक्रमण भी मानना चाहिए । तथा “साधु का योग न हो तो चत्य सम्बन्धी पौषधशाला में अथवा अपने घर पर सामायिक अथवा आवश्यक करें"-इस प्रकार आवश्यकरिण में भी सामायिक से (प्रतिक्रमण) आवश्यक को अलग कहा गया है। सामायिक के लिए काल का नियमन नहीं है। "जहाँ विश्राम लेता है अथवा निर्व्यापार रहता है, वहां सर्वत्र सामायिक करता है।" "जब अवसर हाथ लगे तब सामायिक करे, ताकि सामायिक भंग नहीं होगी।"-ये भी चूणि के ही प्रमाणभूत वचन हैं । “सामायिक उभय काल करें"—यह वचन सामायिक प्रतिमा की अपेक्षा कहा गया है। वहीं पर कालमर्यादा सुनी जाती है। अनुयोगद्वार सूत्र में श्रावक को भी प्रगट रूप से प्रतिक्रमण कहा गया है । जैसे—"श्रमण अथवा श्रमणी, श्रावक अथवा श्राविका प्रतिक्रमण में अपने चित्त मन लेश्या अध्यवसाय तथा तीव्र अध्यवसाय को लगाकर अर्थ के उपयोगपूर्वक, इन्द्रियों को आवश्यक में तल्लीन कर अथवा चरवला आदि उपकरणों के प्रतिक्रमण में यथास्थान उपयोगपूर्वक तथा प्रतिक्रमण की ही भावना से भावित होकर उभयकाल आवश्यक करते हैं।" उसी सूत्र में कहा है-“साधु व श्रावक को दिन व रात्रि के अन्त में अवश्य करने योग्य होने से प्रतिक्रमण को आवश्यक कहा गया है।" .. __ अतः साधु की तरह श्रावक को भी सुधर्मा स्वामी आदि पूर्वाचार्यों की परम्परा से आया हुमा प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। दिन और रात्रि के पापों की विशुद्धि में हेतुभूत होने से महाफलदायी होने से उभयकाल प्रतिक्रमण करना चाहिए। ग्रन्थकार ने कहा भी है-"पाप को निकालने वाला. भावशत्रों को नष्ट करने वाला. पुण्य और निर्जरा कराने वाला तथा मुक्ति की अोर गति कराने वाला प्रतिक्रमण प्रतिदिन दो बार करना चाहिए। दिल्ली में एक श्रावक रहता था, जिसको उभयकाल प्रतिक्रमण का अभिग्रह था। किसी राज-व्यापार में गड़बड़ हो जाने से सभी अंगों में बेड़ियाँ डालकर उसे कारागृह में बन्दी बना दिया गया। उस दिन लंघन (उपवास) होने पर भी सायंकाल प्रतिक्रमण करने के लिए उसने रक्षकों को सोने का टंक देना स्वीकार किया और दो घड़ी तक हाथ की बेड़ियों से मुक्त बना और उसने प्रतिक्रमण किया। इस प्रकार एक माह तक सिर्फ प्रतिक्रमण के लिए ही उसने साठ स्वर्ण टंक दिये। उसके नियम की दृढ़ता देखकर खुश होकर राजा ने उसे मुक्त कर दिया और उसे भेंट देकर पूर्व की अपेक्षा अधिक सम्मान किया। इस प्रकार प्रतिक्रमण के विषय में यतना करनी चाहिए।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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