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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/२०३ उत्सर्ग से तो श्रावक को एक ही बार भोजन करना चाहिए। कहा है-"उत्सर्ग से श्रावक सचित्त का त्याग करने वाला, एक ही बार भोजन करने वाला और ब्रह्मचारी होता है।" जो एकाशना करने में सक्षम न हो उसे कम-से-कम प्रात:काल सूर्योदय के दो घड़ी बाद और शाम को सूर्यास्त से दो घड़ी पूर्व इस अवधि के बीच भोजन कर लेना चाहिए। शाम को सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व भोजन न करे तो रात्रिभोजन गिना जाता है । सूर्योदय के पूर्व व रात्रि में भोजन करने के अनेक दोष हैं, वे दृष्टान्त सहित ग्रन्थकार की 'अर्थदीपिका' कृति से समझ लें। शाम को भोजन करने के बाद पुनः सूर्योदय न हो तब तक यथाशक्ति चौविहार, तिविहार अथवा दुविहार-दिवसचरिम का पच्चवखाण करे। ये पच्चक्खारण मुख्यतया सूर्यास्त के पूर्व दिन में ही ले लेने चाहिए, दिन में न लिये हों तो रात्रि में भी ले सकते हैं। शंका-दिवसचरिम पच्चक्खाण निष्फल हैं, क्योंकि एकाशन आदि ही में उनका समावेश हो जाता है। समाधान नहीं ! एकाशन आदि के आठ आगार (अपवाद) हैं और इसके तो चार ही आगार हैं। अतः प्रागार का संक्षिप्तीकरण होने से दिवसचरिम पच्चक्खाण सार्थक ही है । रात्रिभोजन के त्यागी द्वारा भी दिन शेष रहने पर यह पच्चक्खाण किया जाता है इसलिए पहले किये गये रात्रिभोजन-निषेध के पच्चवखाण की स्मृति कराने वाला होने के कारण यह पच्चक्खाण सुकर और फलदायी है। इस प्रकार आवश्यक की लघुवृत्ति में कहा है। ६ एड़काक्ष का दृष्टान्त * दशार्णपुर नगर में एक श्राविका शाम को भोजन कर प्रतिदिन दिवसचरिम पच्चक्खाण करती थी। उसका पति मिथ्यादृष्टि था अतः “शाम को भोजन कर यह रात्रि में खाती नहीं है, इस प्रकार बड़ा पच्चक्खाण करती है।" इस प्रकार कहकर उसकी मजाक करता था। एक बार "तुम तोड़ दोगे" इस प्रकार पत्नी के कहने पर भी उसने दिवसचरिम पच्चक्खाण ग्रहण किया। रात्रि में एक सम्यग्दृष्टि देवी उसकी परीक्षा के लिए तथा शिक्षा देने के लिए उसकी बहिन का रूप करके आई और उसे घेवर आदि की सीरनी देने लगी। पत्नी के निषेध करने पर भी लोलुपता से वह घेवर खाने लगा तभी देवी ने उसके मस्तक पर इस प्रकार प्रहार किया कि उसकी आँखें बाहर निकलकर भूमि पर गिर पड़ी। 'मेरा अपयश होगा'-ऐसा जानकर वह श्राविका कायोत्सर्ग में स्थिर हो गयी। उसकी वाणी से देवी ने मर रहे बकरे की आँखें लाकर उसे लगा दी, जिससे वह 'एड़काक्ष' नाम से प्रख्यात हुआ। प्रत्यक्ष फल दिखने से वह श्रावक बना । कौतुक से लोग उसे देखने के लिए पाते, फिर
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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