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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/२०१ भोजन के अन्त में सर्वरस से लिप्त हाथ से प्रतिदिन जल का एक चुलुक पीना चाहिए। पशु की तरह जल नहीं पीना चाहिए। पीने के बाद बचा हुआ पानी तत्काल फेंक देना चाहिए। अंजलि से भी पानी न पीयें, परन्तु परिमित पानी ही हितकारी है। भोजन करने के बाद अपने भीगे हाथ से गाल, बायें हाथ और नेत्र का स्पर्श न करें, बल्कि लाभ के लिए दोनों घुटनों का स्पर्श करना चाहिए। स्नान करने के बाद कुछ समय तक अंगमर्दन, मलमूत्र का त्याग, भार उठाना, बैठना तथा स्नान आदि नहीं करना चाहिए। भोजन के बाद बैठे रहने से मेद बढ़ता है। बायीं ओर सोने से आयुष्य बढ़ता है और दौड़ने से मृत्यु सामने आती है। ___भोजन के बाद दो घड़ी तक बायीं करवट लेटना चाहिए, परन्तु नींद नहीं लेनी चाहिए अथवा सौ कदम चलना चाहिए। प्रागमोक्त भोजन विधिक सुश्रावक निरवद्य आहार, अचित्त तथा प्रत्येक मिश्र द्वारा अपना निर्वाह करने वाले होते हैं । सर-सर या चप-चप आवाज किये बिना, बहुत धीमे भी नहीं और बहुत जल्दी भी नहीं, दाने को नीचे गिराये बिना मन, वचन और काया की गुप्तिपूर्वक साधु की तरह उपयोगपूर्वक भोजन करना चाहिए। अकेला हो तो प्रतरछेद, कटकछेद या सिंहखदित से भोजन करना चाहिए। अनेक हों यानी मंडली में भोजन करने वाले को कटकछेद के सिवाय दो रीति से भोजन करन हए। एक बाज से भोजन करना चाल करके पर्ण हो तब तक उसी ओर से करता रहे उसे कटकछेद कहते हैं। पहले ऊपर की परत खायें, फिर उसके नीचे की, फिर उसके नीचे की, उसे प्रतरछेद कहते हैं। जहाँ से खाना शुरू किया हो वहीं पूर्ण हो तो उसे सिंहखदित कहते हैं । धूम और अंगार दोष का त्याग करते हुए भोजन करना चाहिए। जिस प्रकार बैलगाड़ी को चलाने के लिए उसकी धुरात्रों में परिमित तेल लगाया जाता है तथा व्यक्ति के चोट लगने पर परिमित लेप लगाया जाता है, उसी प्रकार केवल संयम के भार को वहन करने के लिए साधु का परिमित आहार होता है । गृहस्थों द्वारा अपने लिए तयार किया गया जो भी तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल, मधुर तथा खारा भोजन होता है, उस भोजन को साधु मधुर घृत की तरह खाये। अथवा रोग प्राने पर, मोह का उदय होने पर, स्वजन आदि की ओर से उपसर्ग होने पर, जीवदया के लिए, तप के लिए तथा शरीर का त्याग करने के लिए आहार का त्याग करना चाहिए। ये बातें साधु को उद्देशित कर कही गयी हैं। श्राक्क को भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए। अन्यत्र भी कहा है-"शक्ति हो तो विवेकी पुरुषों को देव, साध, नगरस्वामी तथा स्वजन के संकट में तथा सूर्य-चन्द्र के ग्रहण के समय भोजन नहीं करना चाहिए।" सभी प्रकार के रोग अजीर्ण से उत्पन्न होते हैं। अत: अजीर्ण दशा में भोजन का त्याग करना चाहिए। कहा है-वायु, श्रम, क्रोध, शोक, काम या घाव के कारण बुखार न हो तो बल में रुकावट डालने वाला होते हुए भी बुखारकी आदि में लंघन ही करना हितकारी है। अतः
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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