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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / १९९ भोजन की व्यवस्था करने के बाद नमस्कार महामंत्र और अपने पच्चक्खाण के नियम के स्मरणपूर्व सात्त्विक भोजन करना चाहिए। कहा है- "पिता, माता, बालक, गर्भिणी स्त्री, वृद्ध तथा रोगी व्यक्ति को पहले भोजन कराकर फिर उत्तम पुरुषों को स्वयं भोजन करना चाहिए ।" पशु तथा बन्धनग्रस्त जीवों को भोजन-व्यवस्था होने के बाद ही धर्मज्ञ पुरुष को भोजन करना चाहिए, अन्यथा नहीं । * सात्म्य ( सात्त्विक) भोजन * जो आहार पान आम तौर से विरुद्ध ( कुपथ्य ) होने पर भी खाने वाले को सुखकारी होता है, उसे सात्म्य कहते हैं । जीवन पर्यन्त प्रमाणोपेत खाया हुआ विष भी अमृत का काम करता है और जैसे-तैसे खाया गया अमृत भी विष बन जाता है । प्रमाणोपेत भी पथ्य का ही सेवन करना चाहिए, अपथ्य का नहीं । " बलवान को सभी पथ्य है" - ऐसा मानकर कालकूट विष नहीं खा लेना चाहिए । विषशास्त्र का ज्ञाता सुशिक्षित होने पर भी कभी विष खा ले तो मरता ही है। कहा है- " गले से नीचे उतर जाने के बाद सभी प्रकार का भोजन समान हो जाता है । अतः बुद्धिमान पुरुष क्षणभर के सुख के लिए लोलुपता नहीं करते हैं ।" इस उक्ति से लोलुपता के त्याग द्वारा अभक्ष्य, अनन्तकाय और बहुसावद्य वस्तु का त्याग करना चाहिए । भोजन अपनी जठराग्नि ( पाचन शक्ति) के अनुसार तथा परिमित करना चाहिए । जो व्यक्ति परिमित भोजन करता है, वास्तव में, वह अधिक भोजन करता है; क्योंकि परिमित भोजन से उसका स्वास्थ्य बना रहता है और वह अधिक समय तक जी सकता है। अधिक भोजन करने से अजीर्ण, वमन, दस्त व मृत्यु तक भी हो सकती है। कहा है- "हे जीभ ! खाने और बोलने में अपनी मर्यादा का ध्यान रख। खाने और बोलने में मर्यादा भंग करने से उसका परिणाम भयंकर होता है ।" "हे जीभ ! यदि तुम दोषरहित और परिमित भोजन कर दोषरहित और परिमित बोलोगी तो कर्मरूपी सुभटों के साथ युद्ध करने वाले व्यक्ति की विजय तुम्हारी वजह से होगी ।" जो मनुष्य हितकारी, परिमित और परिपक्व भोजन करता है और बायीं ओर शयन करता है, नित्य घूमता-फिरता है, मल-मूत्र का त्याग करता है और स्त्रियों के विषय में अपने मन को जीतने वाला है, वह व्यक्ति रोग पर विजय पाता है । भोजन-विधि 5 5 व्यवहारशास्त्र के अनुसार एकदम प्रभात समय में, संध्या व रात्रि के समय में भोजन न करें। निन्दा करते हुए भोजन न करें । • चलते हुए भोजन न करें। बायें पैर पर हाथ देकर भोजन न करें और हाथ में लेकर भोजन न करें। खुले आकाश में, घूप में, अंधेरे में तथा वृक्ष के नीचे तथा तर्जनी अंगुली को ऊँची करके भोजन न करें । मुँह और वस्त्र को धोये बिना भोजन न करें । नग्न होकर भोजन न करें। मलिन कपड़े पहनकर भोजन न करें। बायें हाथ से थाली को ग्रहरण करके भोजन न करें ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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