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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/१९७ __ "अनादर, विलम्ब, पराङ्मुखता, अप्रियवचन तथा पश्चाताप ये पांच दान को दूषित करते हैं।" भृकुटि चढ़ाना, ऊपर देखना, बीच में दूसरी ही बातें करना, पराङ्मुख होना, मौन रहना तथा कालविलम्ब करना—ये छह प्रकार के नकार हैं। आनन्द के आंसू, रोमांच, बहुमान, प्रियवचन और अनुमोदना ये पात्रदान के पांच भूषण हैं। * * भोजन के प्रसंग पर सुपात्र प्रादि दान * साधु आदि का संयोग होने पर विवेकी पुरुष को प्रतिदिन विधिपूर्वक सुपात्रदान देना चाहिए तथा भोजन के समय अथवा उसके पूर्व पाये हुए सार्मिकों को अपनी शक्ति के अनुसार अपने साथ भोजन कराना चाहिए। वे भी पात्र हैं। साधर्मिक-वात्सल्य आदि विधि आगे कहेंगे। अन्य भी भिखारी आदि को उनके योग्य दान देना चाहिए, परन्तु उन्हें निराश नहीं करना चाहिए। उनके पास कर्मबन्ध न करायें, धर्म की निन्दा न करायें तथा स्वयं निष्ठुर न बनें। भोजन के प्रसंग पर द्वार बन्द रखना यह बड़े व्यक्ति व दयालु व्यक्ति का लक्षण नहीं है । सुना है-चित्रकूट में चित्रांगद नाम का राजा था। शत्रुसैन्य ने उसके किले को घेर लिया। शत्रुओं के प्रवेश का भय होने पर भी वह भोजन के समय पर नगर का द्वार खुलवा देता था। उसका मर्म वेश्या ने बतला दिया, जिससे शत्रुओं ने उस दुर्ग को अपने अधीन कर लिया। अतः श्रावक को भोजन के समय घर के द्वार बन्द नहीं करने चाहिए, विशेषकर समृद्ध श्रावक को। कहा भी है "अपना पेट भरने वाला तो यहाँ कौन नहीं है ? परन्तु जो पुरुष अनेक का आधार है, वही वास्तव में पुरुष है। अतः भोजन के समय आये हुए बन्धु आदि को अवश्य भोजन कराना चाहिए।" भोजन के समय आये हुए अतिथि अर्थात् मुनिजनों को भक्तिपूर्वक, याचकों को अपनी शक्ति-अनुसार और दुःखी लोगों को अनुकम्पा से कृतार्थ करने के बाद ही उत्तम पुरुषों को भोजन करना उचित है। प्रागम में भी कहा है ___"भोजन करते समय सुश्रावक अपने घर के द्वार बन्द नहीं करता है, क्योंकि जिनेश्वर भगवन्तों ने श्रावकों के लिए अनुकम्पा का कहीं निषेध नहीं किया है।" - "भयंकर ऐसे भवसमुद्र में प्राणियों के समूह को दुःखी देखकर किसी भी प्रकार के भेद बिना श्रावक को द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से अपनी शक्ति के अनुसार अनुकम्पा करनी चाहिए।" - यहाँ पर मूल ग्रन्थ में 'रत्नसार' की विस्तृत कथा दी गयी है। भावानुवाद में यह कथा परिशिष्ट के रूप में मी गयी है। कृपया परिशिष्ट दखें।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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