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________________ श्रादविधि/१६२ गलत मार्ग में एक कौड़ी भी खर्च हो जाय तो उसे हजारों मोहरों का नुकसान समझे और अवसर आने पर मुक्त हाथ से करोड़ों मोहरें भी खर्च करे तो भी ऐसे व्यक्ति को लक्ष्मी कभी छोड़ती नहीं है। + नवीन पुत्रवधू का दृष्टान्त . एक सेठ की नवीन पुत्रवधू ने अपने श्वसुर को दीपक में से गिरे तेल को जूतों पर चुपड़ते हुए देखा। यह देखकर उसके मन में संदेह हुआ कि क्या मेरे श्वसुर इतने कृपण हैं ? श्वसुर की परीक्षा के लिए उसने तीव्र सिरदर्द का बहाना किया और बिस्तर पर सोकर अत्यन्त क्रन्दन करने लगी। श्वसुर द्वारा बहुत से उपाय करने पर उसने कहा- "मुझे पहले भी बीच-बीच में ऐसी बीमारी हो जाया करती थी परन्तु जातिमान (ऊंचे) मोतियों के चूर्ण के लेप से मेरी पीड़ा दूर हो जाती थी।" यह बात सुनते ही पुत्रवधू की रोगमुक्ति का उपाय मिल जाने से सेठ एकदम खुश हो गया और उसी समय सच्चे मोतियों को पिसाने के लिए तैयार हो गया परन्तु पुत्रवधू ने उसे रोक दिया और सच्ची बात बतला दी। पुत्रवधू को भी ख्याल आ गया कि मेरे श्वसुर कृपण नहीं किन्तु अनावश्यक अपव्यय से बचने वाले हैं। धर्म में व्यय करने से लक्ष्मी वश में रहती है और उसी से वह स्थिर रहती है । कहा भी है-. "देने से धन क्षीण होता है, ऐसा मत मानो। कुआ, बगीचा तथा गाय ज्यों-ज्यों दान करते हैं, त्यों-त्यों उनकी सम्पत्ति बढ़ती ही है।" 9 विद्यापति सेठ ॥ विद्यापति सेठ अत्यन्त समृद्ध था। एक बार रात्रि में लक्ष्मीदेवी ने आकर उसे कहा-"मैं आज से दसवें दिन चली जाऊंगी।" सेठ ने स्वप्न की बात अपनी पत्नी को कही। पत्नी की सलाह से उसने सारा धन उसी दिन सात क्षेत्रों में खर्च कर दिया और फिर परिग्रह का परिमाण करके सुखपूर्वक सो गया। दूसरे दिन प्रातः उठने पर सेठ ने अपना घर धन-धान्य से पूर्ण देखा। उसने पुनः सब खर्च कर दिया। इस प्रकार नौ दिन बीत गये। दसवें दिन रात्रि में प्राकर लक्ष्मीदेवी ने कहा--"तुम्हारे पुण्य से मैं अब सुस्थिर हो गयी हूँ।" अपने व्रत-भंग के भय से सेठ ने नगर का त्याग कर दिया। उसी समय पुत्र-रहित राजा की मृत्यु हो जाने के कारण पंच दिव्य प्रगट किये गये। उस हाथी ने सेठ का अभिषेक किया। उसी समय दिव्य वारणी हुई। उसके कारण सेठ राजा बना। दीर्घकाल तक राज्य का पालन कर वह राजा देव बना। अन्त में पांचवें भव में उसने मोक्ष प्राप्त किया।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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