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________________ श्रादविषि/१६० लोभ का पूर्ण त्याग भी नहीं करना चाहिए । प्रतिलोभ के वशीभूत बना सागर सेठ सागर में ही डूब गया। "जो कुछ भी इच्छा करे" इतने मात्र से वस्तु की प्राप्ति नहीं हो जाती है। कोई रंक चक्रवर्तीपने की तीव्र इच्छा करे तो इतने मात्र से वह चक्रवर्ती नहीं बन जाता है। हाँ, भोजन-वस्त्र तो पा भी सकता है। ग्रन्थकार ने कहा है __"इच्छानुसार फल पाने की इच्छा हो तो अपनी योग्यता के अनुसार ही इच्छाएँ करनी चाहिए। लोक में भी परिमित वस्तु मांगने पर मिलती है, परन्तु अपरिमित वस्तु मांगने से कहीं नहीं मिलती है।" अतः अपने भाग्य के अनुसार ही इच्छाएं करनी चाहिए। अधिकाधिक इच्छाएँ करने से उनकी पूर्ति नहीं होने के कारण केवल दुःख ही मिलता है। "करोड़पति बनने के लिए बहुत कष्ट (क्लेश) को सहन करने वाले निन्यानवे लाख टंक के अधिपति धन सेठ का दृष्टान्त यहाँ सोचना चाहिए।" ___कहा है-"प्राणियों की आकांक्षाएँ ज्यों-ज्यों पूर्ण होती जाती हैं, त्यों-त्यों विशेष पाने के लिए मन दुःखी होता जाता है।" ___ “जो आशामों का दास है वह त्रिभुवन का दास है और जिसने आशा को अपनी दासी बना ली, उसने तीन जगत् को अपना दास बना लिया।" ॐ धर्म, अर्थ और काम में समतोल रखें ___गृहस्थ अबाधित रूप से धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है। कहा भी है-"लोक में धर्म, अर्थ और काम ये तीन पुरुषार्थ कहे गये हैं। बुद्धिमान पुरुष अवसर देखकर उनका सेवन करता है।" "धर्म और अर्थ को हानि पहुँचाकर क्षणिक कामभोग में लुब्ध बनने वाला मनुष्य वनहाथी की तरह कौनसी आपत्ति नहीं पाता है ?" जिसको काम में अत्यन्त आसक्ति है वह धन, धर्म और शरीर इन तीनों को नुकसान पहुंचाता है। धर्म और काम की उपेक्षा करने से उपार्जित धन का अन्य ही लोग उपभोग करते हैं और स्वयं तो हाथी की हत्या करने वाले सिंह की तरह केवल पाप का ही भाजन बनता है। अर्थ और काम की सम्पूर्ण उपेक्षा कर केवल धर्म का सेवन तो साधु के लिए ही उचित है, गृहस्थ के लिए नहीं। धर्म को बाधा पहुँचाकर अर्थ और काम का सेवन नहीं करना चाहिए; क्योंकि बीजभोजी कौटुम्बिक की तरह अधार्मिक पुरुष का भविष्य में कल्याण नहीं होता है। सोमनीति में भी कहा है-"परलोक के सुख को बाधा पहुँचाये बिना जो इस लोक में सुखी है, वही वास्तव में सुखी है।" अर्थ को बाधा पहुँचाकर धर्म और काम का सेवन करने वाले का कर्ज , बढ़ जाता है और काम को बाधा पहुँचाकर धर्म और अर्थ का सेवन करने वाले को गृहस्थसुख का अभाव हो जाता है। इस प्रकार विषयों में आसक्त, मूलभोजी और कृपण को क्रमश: धर्म, अर्थ और काम में बाधा स्पष्ट ही होती है। वह इस प्रकार है-जो व्यक्ति कुछ भी विचार किये बिना प्राप्त धन को विषयसुख के पीछे खर्च कर देता है, वह तादात्विक कहलाता है।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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