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________________ श्राद्ध विधि / १४४ श्री दारिद्रय संवाद में कहा है- लक्ष्मी कहती है- "हे चक्र ! जहाँ गुरुजनों की पूजा होती है, 'जहाँ न्यायपूर्वक धन है, जहाँ झगड़े (दन्त - कलह ) का अभाव है, वहाँ पर मैं रहती हूँ ।" दारिद्र्य कहता है- "जो जुए का पोषण करता है, स्वजनों से द्वेष करता है, रसायनी (कीमियागर ) है, सदैव आलस करता है, आय-व्यय का विचार नहीं करता है, वहाँ पर मैं हमेशा रहता हूँ ।' बकाया रकम की वसूली भी कोमलतापूर्वक अनिद्यवृत्ति से ही करनी चाहिए। कठोर व निद्य व्यवहार करने से कर्जदार के दाक्षिण्य व लज्जादि गुणों का लोप होता है, जिससे धन, धर्मं और प्रतिष्ठा की हानि होती है । स्वयं लंघन करे तो भी दूसरों को लंघन नहीं कराना चाहिए। स्वयं को छोड़कर दूसरों को - लंघन कराना तो सर्वथा प्रयोग्य है । दूसरों को भोजन आदि का अन्तराय करने से ढंढरणकुमार आदि की तरह भयंकर कष्ट सहना पड़ता है । जितना कार्य समता से सिद्ध हो सकता है, उतना कार्य कोप से सिद्ध नहीं हो सकता और उसमें भी विशेषकर वणिक् आदि का । कहते भी हैं " यद्यपि साध्य की सिद्धि के लिए चार उपाय ( साधन ) बतलाये गये हैं, परन्तु कार्य सिद्धि तो सामनीति में ही रही हुई है, अन्य तो केवल नाम मात्र के उपाय हैं।" तीक्ष्ण और अत्यन्त निष्ठुर व्यक्ति भी मृदुता से वश में हो जाते हैं। जीभ मृदु होने से नौकर की तरह ये दाँत उसकी उपासना करते हैं । लेन-देन के सम्बन्ध में भ्रान्ति और विस्मृति के कारण कोई मतभेद पैदा हो जाय तो भी परस्पर विवाद नहीं करना चाहिए, परन्तु लोक में प्रतिष्ठित, चतुर और न्याय करने वाले चार-पाँच व्यक्तियों को नियुक्त कर, उनके निर्णय को मान्य करना चाहिए, अन्यथा विवाद का कोई अन्त ही न आये। कहा भी है- "सगे भाइयों के विवाद को भी दूसरों से ही निपटाना चाहिए । गुत्थी वाले बाल कंधे से ही अलग किये जा सकते हैं ।" नियुक्त पुरुषों को भी मध्यस्थता (पक्षपात बिना) से न्याय करना चाहिए । अपने ऊपर न्याय करने की जवाबदारी आये तो बराबर परीक्षा करके स्वजन और साधर्मिक के कार्य में ही जवाबदारी लेनी चाहिए। क्योंकि निर्लोभता पूर्वक सम्यक् न्याय करने में जैसे विवाद की समाप्ति और बड़प्पन आदि गुण हैं, उसी प्रकार दोष भी बड़े हैं । विवाद को दूर करने के लिए कभी बराबर नहीं जानने आदि से देनदार को लेनदार और लेनदार को देनदार किया जाता है। इस पर सेठ की पुत्री का दृष्टान्त है । 5 श्रेष्ठिपुत्री का दृष्टान्त एक समृद्ध श्रेष्ठी अत्यन्त ही प्रसिद्ध था। बड़प्पन और बहुमान के अभिमान के कारण वह
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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