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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / १३६ तो 'श्रापका धन मुझे जरूर देना ही है परन्तु वह धीरे-धीरे दूंगा यों कहकर थोड़ी-थोड़ी भी रकम चुकाते रहना चाहिए जिससे लेनदार को सन्तोष हो जाये । यदि ऐसा न करे तो विश्वासघात के कारण व्यवहार का भंग हो जाता है । ऋण मुक्ति के लिए अपनी सर्वशक्ति से प्रयत्न करना चाहिए। वह कौन मूर्ख होगा जो इस लोक और परलोक में पराभव के कारणभूत ऋण को क्षणमात्र भी धारण करेगा ? कहा भी है "धर्म-साधना करने में, ऋरण के उच्छेद में, कन्यादान में, धन के आगमन में, शत्रु के घात में तथा अग्नि व रोग में थोड़ा भी विलम्ब नहीं करना चाहिए ।" "तेल की मालिश, ऋरण का छेद तथा कन्या की मृत्यु तत्काल ही दुःखदायी मालूम होते हैं। परन्तु परिणाम में सुखदायी हैं ।" जीवन निर्वाह में असमर्थता के कारण यदि कर्ज चुकाने की ताकत न हो तो लेनदार के घर कुछ काम करके भी ऋणमुक्त बनना चाहिए, अन्यथा भवान्तर में उसके घर नौकर, भैंस, बैल, ऊँट, गधा, खच्चर, घोड़ा आदि बनकर कर्ज चुकाना पड़ता है । यदि कर्जदार ऋण चुकाने में अत्यन्त अशक्त हो तो लेनदार को भी बारम्बार याचना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे निरर्थक क्लेश और पापवृद्धि ही होती है । परन्तु उसे " जब शक्ति हो तब दे देना, न दे सको तो उतना भले ही धर्मादा हो" कह देना चाहिए । लम्बे समय तक ऋरण सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए क्योंकि अचानक आयुष्य समाप्त हो जाय तो भवान्तर में दोनों के बीच वैरवृद्धि प्रादि होती है । 15 कर्ज पर भावड़ सेठ का दृष्टान्त 5 भावड़ सेठ की पत्नी गर्भवती बनी। उसे अत्यन्त खराब स्वप्न आया और उसे खराब दोहद पैदा हुए। अन्य भी बहुत से अपशकुन हुए । गर्भकाल पूर्ण होने पर मृत्युयोग में दुष्ट पुत्र पैदा हुआ। माहणी नदी के किनारे एक सूखे वृक्ष के नीचे उसने उस बालक को छोड़ दिया । वह बालक पहले तो रोया, फिर हँसकर बोला - " मैं एक लाख सोना मोहर मांगता हूँ, मुझे दो, अन्यथा भविष्य में अनर्थं होगा ।" उसके बाद सेठ द्वारा उस बालक के जन्मोत्सव आदि के महोत्सव पर छठे दिन एक लाख सोना मोहरें खर्च होने पर बालक की मृत्यु हो गयी । इसी प्रकार दूसरे पुत्र के जन्मसमय भी यही घटना बनी और उस समय सेठ ने तीन लाख रुपये खर्च किये तब उस पुत्र की मृत्यु हो गयी । कुछ समय बाद सेठ की पत्नी तीसरी बार गर्भवती बनी। उस समय उसे अच्छे स्वप्न श्राये और शकुन भी अच्छे हुए ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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