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________________ श्राद्धविधि/ १३६ न किया जाय तो असफलता, लज्जा, उपहास, हीलना, धन व कायबल की हानि है । दूसरों ने भी कहा है "कौनसा देश है ? कौन - कौन मित्र है ? कौनसा काल है ? प्राय-व्यय के साधन कौन से हैं? मैं कौन हूँ? मेरी शक्ति कितनी है ? इत्यादि बार-बार सोचना चाहिए ।" " द्रुतगति से कार्य करने वाले, विघ्न बिना के एवं सम्भवित साधनवाले कारण कार्य की सिद्धि को प्रथम से ही मालूम करा देते हैं ।" बिना यत्न प्राप्त होने वाली और प्रयत्न करने पर भी प्राप्त न होने वाली लक्ष्मी ही पुण्य और पाप के भेद को बतलाती है । * व्यापार में व्यवहारशुद्धि व्यापार में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार की व्यवहारशुद्धि कही गयी है । ( 1 ) द्रव्यशुद्धि - पन्द्रह प्रकार के कर्मादान आदि में काररणभूत विक्रेय वस्तु का त्याग करना चाहिए। कहा भी है- "धर्म में विघ्नकारक और अपयश को देने वाली विक्रेयवस्तु में अधिक लाभ होता हो तो भी पुण्य के अर्थी को उस प्रकार की वस्तु ग्रहण नहीं करनी चाहिए ।" " तैयार वस्त्र, सूत, रुपया, सोना तथा चांदी आदि का व्यापार प्रायः निर्दोष होता है ।" व्यापार में कम-से-कम प्रारम्भ, जीवहिंसा हो, उसके लिए सदैव प्रयास करना चाहिए । :. अकाल के समय आजीविका का अन्य साधन न हो और अधिक आरम्भ वाला खर कर्म करना पड़े तो भी अनिच्छा से ही करना चाहिए। इसके साथ ही उस कर्म को करते हुए आत्मनिन्दा करनी चाहिए और वह कार्य करुणासहित करना चाहिए । आगम में भावश्रावक के लक्षण में कहा है- " श्रावक तीव्र आरम्भ का त्याग करता है, अन्य साधन से निर्वाह नहीं होता हो तो अनिच्छा से करता है और आरम्भ रहित लोगों की अनुमोदना करता है | श्रावक सर्वजीवों के प्रति दयालु होता है । "उन महामुनियों को धन्य है, जो मन से भी परजीव को पीड़ाकारक विचार नहीं करते हैं, आरम्भ और पाप से रहित होकर त्रिकोटि परिशुद्ध प्रहार ग्रहण करते हैं ।" * व्यापार में सावधानी नहीं देखा हुआ और अपरीक्षित माल स्वीकार नहीं करना चाहिए। लाभ में यदि शंका वाला और सामूहिक माल हो तो समूह में ही लेना चाहिए, अकेले में नहीं क्योंकि उसमें अचानक आपत्ति जाय तो अनेक सहायक होने से वह प्रापत्ति-नुकसान भी विभक्त हो जाता है । यदि व्यापारी लक्ष्मी बढ़ाने की इच्छा रखता हो तो कहा भी है- "नहीं देखी हुई वस्तु की पेशगी न दे । कदाचित् वैसा करने की आवश्यकता ही पड़े तो बहुत जनों के साथ मिलकर करे परन्तु अकेला न करे ।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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