SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि/१२८ कहा भी है-"राजा का हित करे और प्रजा की उपेक्षा करे, तो लोक में द्वेष-विरोध पैदा होता है और प्रजा का हित करे एवं राजा की उपेक्षा करे तो राजा नौकरी ही छुड़ा देता है। इस प्रकार दोनों को सम्हालने में बड़ी कठिनाई है। इसी कारण उभय (राजा व प्रजा) का हितकर्ता मिलना अत्यन्त * व्यापार-विधि - व्यवहार-शुद्धि प्रादि के परिपालन से व्यापारी धर्म-अविरुद्ध जीवन जी सकता है। मूल गाथा में. कहा है "श्रावक व्यवहार की शुद्धि से, देश आदि के विरुद्ध के त्याग से, उचित आचरण के पालन से अपने धर्म का निर्वाह करता हुअा अर्थ-चिन्ता करे।" । ___ व्यवहार-शुद्धि अर्थात् अर्थार्जन के उपाय की शुद्धि । मन, वचन और काया के कपट बिना अर्थार्जन करना व्यवहार-शुद्धि है। व्यापार करते समय देश आदि के विरुद्ध प्रवृत्ति के त्याग और उचित आचार के पालन पूर्वक तथा स्वीकार किये गये व्रत-अभिग्रहों के पालनपूर्वक व्यापार आदि करना चाहिए न कि लोभ और ग्रहण किये गये नियमों के विस्मरण से धर्म को बाधा पहुंचाते हुए। "दुनिया में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो धन से सिद्ध नहीं होती हो। अतः बुद्धिमान् व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक एक अर्थ को ही सिद्ध करता है।" यहाँ 'अर्थचिन्ता' अनुवाद्य है। क्योंकि वह तो अनादि संस्कार के कारण स्वयंसिद्ध ही है, परन्तु वह अर्थचिंता धर्म के नियमों के पालनपूर्वक हो, इसी बात का यहाँ विधान करना है। कहा भी है-"इस लोक के कार्यों में व्यक्ति सर्व प्रारम्भ से प्रयत्न करता है। उसका एकलाखवाँ भाग भी प्रयत्न धर्म के लिए करे तो उसे क्या नहीं मिल सकता !" # आजीविका के सात उपाय, प्राजीविका के सात उपाय हैं- (1) व्यापार (2) विद्या (3) खेती (4) पशुपालन (5) शिल्प (6) सेवा और (7) भिक्षा। (1) वणिक लोग व्यापार से, वैद्य आदि अपनी विद्या से, किसान खेती से, गो-पालक पशुपालन से, सुथार, शिल्पी आदि शिल्प से, सेवक लोग सेवा से और भिखारी भिक्षा से अपनी आजीविका चलाते हैं। अनाज, घी, तेल, कपास, सूत, वस्त्र, लोहा, तांबा, पीतल आदि धातु, मणि, मोती, सिक्के आदि अनेक वस्तुओं का व्यापार होता है। लोक में किराणे की 360 वस्तुएँ प्रसिद्ध हैं। उन वस्तुओं * न्यायकोश में अनुवाद्यता-'प्रमाणान्तरसिद्घस्य किञ्चिद्धर्मविधानायं पुनरुपन्यास्यता ।' जो वस्तु सिद्ध हो उसी के बारे में कुछ विशेष बताने हेतु वापस उल्लेख किया जाता है, ऐसी वस्तु को 'अनुवाद्य' कहते हैं । जैसे-प्रस्तुत में 'अर्थचिन्ता' (धन का उपार्जन)।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy