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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / १०५ चिन्तामणि रत्न प्रदान किया । चिन्ता मत करो, इसके प्रभाव से पुण्यसार ने इक्कीस उपवास किये, आाखिर देवी ने उसे कर्मसार पश्चात्ताप करने लगा । तब पुण्यसार ने कहा- “भाई ! तुम्हारी भी इच्छापूर्ति होगी।" - इस प्रकार बात कर दोनों वाहन पर चढ़ गये । रात्रि में पूनम के चन्द्रमा को देखकर बड़े भाई ने कहा- “भाई ! चिन्तामरिण रत्न को बाहर निकालो, जरा देखें कि रत्न अधिक तेजस्वी है या चन्द्र ? " इस बात को सुनकर वाहन के तट पर खड़े छोटे भाई ने वह रत्न हाथ में लिया, फिर एक बार रत्न पर, तो दूसरी बार चन्द्र पर, इस प्रकार पुनःपुनः एक-दूसरे को देखने लगा । अचानक वह रत्न समुद्र में गिर पड़ा। उसके सारे अरमान वहीं समाप्त हो गये । वे दोनों प्रत्यन्त दुःखी होकर अपने घर लौटे। किसी ज्ञानी गुरु से उन्होंने अपने पूर्व भव पूछे । ज्ञानी गुरु ने कहा- चन्द्रपुर नगर में जिनदत्त और जिनदास नाम के दो श्रेष्ठी श्रावक थे । एक बार अन्य श्रावकों ने मिलकर उन दोनों को क्रमशः बहुत ज्ञानद्रव्य और साधारणद्रव्य की व्यवस्था का कार्यभार सौंपा। वे दोनों अच्छी तरह से व्यवस्था करने लगे । एक बार जिनदत्त ने अपनी बही में कोई अतिश्रावश्यक बात लहिए से लिखवाई। उस समय दूसरा पैसा पास में नहीं होने से "यह भी ज्ञान का ही कार्य है" ऐसा विचार करके ज्ञानखाते में से उसने बारह द्रम्म लहिए को दिये । जिनदास ने एक बार सोचा - "साधारणद्रव्य सात क्षेत्रों के लिए योग्य होने से श्रावक के लिए भी योग्य है और मैं भी श्रावक हूँ"- - इस प्रकार विचार कर अपने घर के जरूरी कार्य के लिए दूसरा द्रव्य नहीं होने से साधारणद्रव्य में से बारह द्रम्म लेकर व्यय कर लिये । वहाँ से दोनों भाई मरकर उस दुष्कर्म के कारण पहली नरक में गये । वेदान्त में भी कहा है- " कण्ठगत प्राण श्राने पर भी साधारणद्रव्य लेने की इच्छा नहीं करनी चाहिए । अग्नि से दग्ध ठीक हो जाता है, परन्तु साधारणद्रव्य - भक्षरण की आग से जला हुआ ठीक नहीं होता है ।" "साधारणद्रव्य, ब्रह्महत्या, दरिद्री का धन, गुरु की स्त्री और देवद्रव्य स्वर्ग में भी प्राणी को नीचे गिराते हैं । " नरक में से निकलकर वे दोनों सरीसर्प बने। वहाँ से पुनः दूसरी नरक में गये । नरक से निकलकर गिद्ध बने, फिर तीसरी नरक में गये। इस प्रकार एक-दो प्रादि भवों के अन्तर से वे सातों नरकों में, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच के बारह हजार भवों में अत्यन्त दु:ख का अनुभव कर बहुत सा पापकर्म क्षीण हो जाने के कारण तुम दोनों के रूप में उत्पन्न हुए । बारह द्रम्म का उपभोग करने के कारण दोनों को बारह हजार भवों में भटकना पड़ा और
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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