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________________ अभिनव प्राकृत-व्याकरण दुहा वि सो सुर-धहू-सत्थो = द्विधापि स सुरवधूसार्थ : (६६) पानीय गण के शब्दों में दीर्घ ईकार के स्थान में हस्व इकार होता है। 'जैसेपाणिअंदपानीयम्-बहुल अधिकार होने से पाणीअं भी होता है। अलिअं< अलोकम् अलीअं भी होता है जिअइ< जीवति जीआइ जिअउ< जीवतु जीअउ विलिअं< वीडितम् विली करिसोर करीषः करीसो सिरिसोरशिरीष: सिरीसो दुइअं< द्वितीयम् दुई तइअं< तृतीयम् तई गहिरं गभीरम् गहोरं उवणिअं८ उपनीतम् उवणीअं आणिअं<आनीतम् आणी पलिविअं< प्रदीपितम्- , पलीविरं ओसिअन्तो< अवसीदन्-, ओसीअन्तो पसिअप्रसीद पसीअ गहिअं< गृहीतम् गही वम्मिओ< वल्मीक: वम्मीओ तयाणिं < तदानीम् तयाणी १. पानीयादिष्वित् ८।१।१०१. पानीयादिषु शब्देषु ईत इद् भवति । हे० । 'कल्पलतिका' के अनुसार पानीयगण में निम्नलिखित शब्द हैं-- पानीयवीडितालीकद्वितीयं च तृतीयकम् । यथागृहीतमानीतं गम्भीरञ्च करीषवत् ।। इदानों च तदानी च पानीयादिगणो यथा। 'प्राकृत मञ्जरी' के अनुसार-पानीयवीडितालीकद्वितीयकरीषकाः । - गम्भीरञ्च तदानीञ्च पानीयादिरयं गणः ॥ - 'प्राकृप्र प्रकाश में उपनीत, पानीत, जीवति, जीवतु, प्रदीपित, प्रसीद, शिरीष, गृहीत, वल्मीक और अवसीदन् शब्दों का उल्लेख नहीं है।
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
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