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________________ २६ अभिनव प्राकृत व्याकरण वीसु विष्वक् क् के स्थान पर अनुस्वार होता है । पिहं < पृथकू— "" सम्मं सम्यक 39 99 (१६) व्यञ्जन वर्णों के पर में रहने पर, ङ अनुस्वार होता है । जैसे— १ पंत्ती < पङ्क्तिः परंमुह पराङ्मुखः कंचुओकञ्चुकः रहने वाले निर् और प्रति के Q ( १७ ) माल्य शब्द और स्थाधातु के पूर्व में स्थान में विकल्प से ओत और परि का आदेश होता है । जैसेओमल्ल, ओमालं, निम्मलं < निर्माल्यम् - निर् के स्थान में ओत होने से ओमल्लं या ओमालं होता है और ओ के अभाव में निम्मलं बनता है । परिट्टि, पट्टि आदेश के अभाव में पइट्टि " ܗ परिट्ठा, पट्टा प्रतिष्ठा - प्रति के स्थान में परि आदेश होने से परिट्ठा और परि आदेश के अभाव में पट्टा रूप बनता है । प्रतिष्ठितम् परि आदेश होने से परिट्टि और परि रूप बनता है । और स् से पूर्व अथवा पर में रहने ( १८ ) जिन शू, षू अ और सवर्णो ' का प्राकृत के नियमानुसार लोप हुआ हो उन "" वीसमइ << विश्राम्यतिर् का लोप और दीर्घ । वीसामो< विश्रामः - मीसंमिश्रम् - "" और नू 33 - ष, सकारों के आदि स्वर को दीर्घ होता है। उदाहरण पासइ = परसइ | पश्यति - ' पश्यति' के य का लोप होने से स् को द्विस्व होता है । सरलीकरण की क्रिया द्वारा अन्तिम व्यञ्जन त् का लोप होने से स्वर इ शेष रहता है और सू का लोप होने से इस नियम द्वारा दीर्घ हो गया है । कासव कस्सवो = काश्यपः - य का लोप और दीर्घ । 95 के स्थान में वाले य्, र्, व्, श्, शकार, षकार और १. ङ - ञ-ण-नो व्यञ्जने ८।१।२५ ङ, ञण, न इत्येतेषां स्थाने व्यञ्जने परे अनुस्वारो भवति । हे० । २. निष्प्रतीोत्री माल्यस्थोर्वा ८|१| ३८. निर् प्रति इत्येतौ माल्यशब्दे स्थाधातौ च परे यथासंख्य श्रोत् परि इत्येवं रूपौ वा भवतः । हे० । ३. लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श ष सां दीर्घः ८ १ ४३. प्राकृत लक्षरणवशाल्लुप्ता याद्या उपरि धो वा येषां शकारषकारसकाराणां तेषामादेः स्वरस्य दीर्घो भवति । हे० ।
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
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