SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ अभिनव प्राकृत व्याकरण - (१ ) प्रकृति--स्वभावादि अर्थों में तृतीया होती है। यथा--पइईअ चारूस्वभाव से सुन्दर, गोत्तेण गग्गो, रसेण महुरो, सुहेण जाइ। किं जगणिजोव्वणविउउणमत्तेज जम्मेणं । ( २ ) दिव धातु के योग में विकल्प से द्वितीया विभक्ति भी होती है। यथा-- अच्छेहि अच्छा वा दोव्वइ--पाशों से या पाशों को खेलता है। ( ३ ) समपूर्वक णा धातु के कर्म की विकल्प से करण संज्ञा होती है। यथापिअरेण, पिअरं वा सण्णाणइ-पिता के साथ मेल से रहता है। ( ४ ) फलप्राप्ति या कार्यसिद्धि को बतलाने के लिए तृतीया विभक्ति होती है। यथा--दुवालसवरसेहिं वाअरणं सुणइ---द्वादशवर्षेः व्याकरणं श्रूयते । (५) सह, साम, सायं और सद्धं के योग में तृतीया विभक्ति होती है । यथा--पुत्तेण सहाअओ पिआ--पुत्रेण सहागतः पिता; लक्खणो रामेण सारं गच्छइ, देवदत्तो जग्यदत्तेण समं नहाति । (६) पिधं, बिना, नाना शब्दों के साथ तृतीया, द्वितीया या पञ्चमी विभक्ति होती है । यथा--पिधं रामेण, रामत्तो, रामं वा; जलेन, जलत्तो, जलं वा; जलं बिना कमलं चिट्ठतुं ण सका। ( ७ ) जिस विकृत अंग के द्वारा अङ्गी का विकार मालूम हो, उस अंग में तृतीया विभक्ति होती है । यथा--पाएण खंजो, कण्णेन बहिरो--पैर का लँगड़ा; कान का बहिरा। ( ८ ) जिस कारण या प्रयोजन से कोई कार्य किया जाता है या होता है, उसमें तृतीया विभक्ति होती है। यथा दंडेण घडो जाओ-दण्डे के कारण घड़ा उत्पन्न हुआ। पुण्णेश दिट्रो हरि-पुण्य के कारण हरि दिखलायी पड़े। अज्झणेण वसइ-अध्ययन के प्रयोजनन से रहता है । ( ९ ) जो जिस प्रकार से जाना जाय, उसके लक्षण में तृतीया विभक्ति होती है। यथा जडाहि तावसो-जटाओं से तपस्वी जान पड़ता है। गमणेण रामं अणुहरइ-गमन में राम के सदृश है । (१०) कार्य, अर्थ, प्रयोजन, गुण तथा इसी प्रकार उपयोग या प्रयोजन प्रकट करने वाले शब्दों के योग में उपयोज्य या आवश्यक वस्तु को तृतीया विभक्ति होती है। यथा
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy