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________________ २१४ अभिनव प्राकृत-व्याकरण संस्कृत में २२ उपसर्ग हैं, पर प्राकृत में २० उपसर्ग ही मिलते हैं; निस् का अन्तर्भाव निर में और दुस् का अन्तर्भाव दुर में हो जाता है। प, परा, ओ-अ, व, सं, अणु, ओ-अव, ओ-नि, दु, अहि, वि, अहि, सु, उ, अइ, णि नि, पडि-पति, परिपलि, इ पि-वि-अवि, ऊ-ओ-उव और आ ये बीस उपसर्ग हैं। संस्कृत में भी निस् का प्रयोग निर् के अन्तर्गत और दुस् प्रयोग दुर् के अन्तर्गत पाया जाता है। पप्र—प्रकर्ष-अधिकता बतलाने के लिए-परूवेइ (प्ररूपयति), पभासेइ (प्रभाषते) परा< परा–विपरीत अर्थ बतलाने के लिए--पराघाओ (पराघातः); पराजिणइ (पराजयते) ओ, अव ८ अप-दूर अर्थ बतलाने के लिए—ओसरइ, अवसरइ (अपसरति) अवहरइ (अपहरति) दूर ले जाता है; ओसरिअं, अवसरिअं ( अपसृतम् ) सं< सम् —अच्छी तरह-संखिवइ (संक्षिपति), संखित्तं ( संक्षिप्तम् )। __ अणु, अनु अनु-पीछे या साथ-रामं अणुगमइ लक्खणोः; अणुजाणइ (अनुजानाति), अनुमई (अनुमतिः)। ओ, अवर अव-नीचे, दूर, अभाव-ओअरइ (अवतरति); ओआरो (अवतार:) अवमाणो (अवमान:); ओआसो, अवयासो (अवकाश:)। ओ, नि, नी< निर् -निषेध, बाहर, दूर-ओमल्लं, निम्मल्लं ( निर्माल्यम् ) निग्गओ (निर्गत:), नीसहो (निस्सहः); रामो तं णिराकरइ । दु, दू<दुर्—कठिन, बुरा-दुन्नयो (दुर्नयः), दूदवो (दुर्भगः)। अहि, अभि< अभि—ओर-- अहिगमणं ( अभिगमनम् )-किसी ओर जाना, अभिहणइ (अभिहन्ति), अहिप्पाओ (अभिप्रायः) । विवि-अलग होना, विना-विकुब्बइ (विकुर्वति), विणओ (विनयः), वेगइआ (वैनयिकाः)। अहि, अधि<अधि-उपर-अहिरोहइ (अधिरोहति)—ऊपर चढ़ता है, अज्झायो (अध्याय:), अहीइ (अधीते)। सु–सू८ सु-अच्छा सहज-सुअरं ( सुकरम् ), सूहवो ( सुभगः )। उ उत्- ऊपर, ऊँचा श्रेष्ठ-उग्गच्छइ ( उद्गच्छति), उग्गओ (उद्गतः), उप्पत्तिआ ( औत्पत्तिकी)। अइ, अति < अति-बाहुल्य या उल्लंघन-अईओ (अतीतः), वइकतो (व्यतिक्रान्त:), अतिसओ (अतिशयः), अञ्चन्तं ( अत्यन्तम् )।
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
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