SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना १७ 1 तो आजतक उपलब्ध ही हुआ है और न इसके होने का ही कोई सबल प्रमाण मिला है । उपलब्ध शब्दानुशासनों में वररुचि के प्राकृतप्रकाश को कुछ विद्वान् प्राचीन मानते हैं और कुछ चण्डकृत प्राकृतलक्षण को । प्राकृतलक्षण संक्षिप्त रचना है । इसमें प्राकृत सामान्य का जो अनुशासन किया गया है, वह प्राकृत अशोक की धर्मलिपियों की भाषा और वररुचि द्वारा प्राकृतप्रकाश में अनुशासित प्राकृत के बीच की प्रतीत होती है । इस शब्दानुशासन के मत से मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का लोप नहीं होता है, वे वर्तमान रहते हैं। वर्ग के प्रथम वर्णों में केवल क और तृतीय वर्णों में ग के लोप का विधान मिलता है । मध्यवर्ती च, ट, त, और प वर्ण ज्यों के त्यों रह जाते हैं । भाषा की यह प्रवृत्ति महाकवि अश्वघोष और भास के नाटकों में पायी जाती है । अत: प्राकृतलक्षण का रचनाकाल ईस्वी सन् द्वितीय तृतीय शती मानने में कोई बाधा नहीं आती है । में इस ग्रन्थ में कुल सूत्र ९९ या १०३ हैं और चार पादों में विभक्त हैं। आरम्भ प्राकृत शब्दों के तीन रूप - तद्भव, तत्सम और देशज बतलाये हैं। तीनों लिङ्ग और विभक्तियों का विधान संस्कृत के समान ही पाया जाता है । प्रथम पाद के दवें सूत्र अन्तिम ३५ वें सूत्र तक संज्ञाओं और सर्वनामों के विभक्तिरूपों का निरूपण किया है । द्वितीयपाद के २९ सूत्रों में स्वर-परिवर्तन, शब्दादेशों एव अव्ययों का कथन किया गया है । पूर्वकालिक क्रिया के रूपों में तु, त्ता, च, ह, तु, तूण, ओ एवं प्पि प्रत्ययों को जोड़ने का नियमन किया हैं। तृतीय पाद के ३५ सूत्रों में व्यञ्जनपरिवर्तन के नियम दिये गये हैं । चतुर्थ पाद में केवल चार सूत्र ही हैं, इनमें अपभ्रंश का लक्षण, अधोरेफ का लोप न होना, पैशाची की प्रवृत्तियाँ, मागधी की प्रवृत्ति र और स् के स्थान पर लू और शू का आदेश एवं शौरसेनी में तू के स्थान पर बिकल्प से दू का आदेश किया है 1 गया प्राकृत प्रकाश चण्ड के उत्तरवर्ती समस्त प्रावृत्त वैयाकरणों ने रचनाशैली और विषयानुक्रम की दृष्टि से प्राकृतलक्षण का अनुकरण किया है । चण्ड के पश्चात् प्राकृत शब्दानुशासकों में वररुचि का नाम आदर के साथ लिया जा सकता है । प्राकृतमंजरी की भूमिका में वररुचि का गोत्र नाम कात्यायन कहा गया हैं । डा० पिल अनुमान किया था कि प्रसिद्ध वार्त्तिककार कात्यायन और वररुचि दोनों एक व्यक्ति हैं; किन्तु इस कथन की पुष्टि के लिए एक भी सबल प्रमाण उपलब्ध नहीं है । एक वररुचि कालिदास के समकालीन भी माने जाते हैं, जो विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे । प्रस्तुत प्राकृतप्रकाश चण्ड के पीछे का है, इसमें कोई सन्देह नहीं । प्राकृत भाषा का शृङ्गार काव्य के लिए प्रयोग ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शतियों के पहले ही होने लगा था। हाल कवि ने गाथासप्तशती
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy