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________________ १०३ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग विच्छित्तये भवतते रिव देवि ! मन्था । स्तुभ्यं नमो जिन भवोदधि शोषणाय ||२६|| हे देवी ! जगत में सर्व लोक हितकारी मार्ग रूपी सिद्धान्त, जिनकी उत्पति तीर्थंकर द्वारा हुई है तथा जो दही को बिलोकर अतिशय धृतकी प्राप्ति कराने वाले मन्थनदंड के समान है, जिसका प्रतिफल उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है, ऐसा सिद्धान्त, भवों की श्रेणी के विनाश के लिये आप द्वारा ही स्थापित किया गया है, अतः आपको नमस्कार हो । मध्यान्ह काल विहृतौ सवितुः प्रभायां । सैवेन्दिरे ! गुणवती त्वमतो भवत्याम् ।। दोषांश इष्ट चरणै रपरै रभिज्ञैः । स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिद पीक्षितोसि ॥२७॥ हे माता इन्दिरा ! आप ही सर्व सद्गुणोंओं से परिपूर्ण हो । आपकी कृपा प्राप्त उत्तम चारित्रधारी मुनिवर एवं अन्य सद्गुणी चतुर जनोंमें कभी स्वप्न में भी किसी अवगुण का अंशमात्र भी देखने में नहीं आया है । जैसेकि, मध्यान्ह काल में चमकते हुए सूर्य की तेज किरणों में रात्रिका अंधकार कहीं भी दिखाई नहीं देता । हारान्तरस्थ मयि ! कौस्तुभ मत्र गात्र । शोभां सहस्र गुणयत्यु दयास्त गिर्योः ॥ वन्द्या ऽस्यत स्तव सती मुपचारि रत्नं । बिम्बं रवे रिव पयोधर पार्थ वर्ति ॥२८॥ हे माता ! आपके कंठ में धारण किये हुए रत्नहार के मध्य लटकम में पिरोया हुआ , उदयाचल एवं अस्ताचल के समीप जाने वाले सूर्य मंडल के समान गोल कौस्तुभ मणि आपके देह की शाश्वती शोभा में सहस्रगुणी वृद्धि करता है । अतः आप ही वंदन करने के योग्य हो । अज्ञान मात्र तिमिरं तव वाग्विलासा । विद्या विनोदि विदुषां महतां मुखाग्रे | निघ्नन्ति तिग्म किरणा निहिता निरीहे । तुङ्गोदयाद्रि शिर सीव सहस्र रश्मेः ||२९||
SR No.032027
Book TitleSamyag Gyanopasna Evam Sarasvati Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshsagarsuri
PublisherDevendrabdhi Prakashan
Publication Year2007
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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