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________________ ( 3 ) स्वामीनी-अन्दरको क्रियाके लिये यह नियम नहीं है। ज़रूमके भरने के लिये किसी इन्द्रियको आवश्यकता नहीं। पेट में मल है परन्त बदल नहीं मालूम होती। परमात्मा विभु है उसमें तरफ (दिशा) का भेद नहीं हो सकता। यह दोष परिच्छिन्नमें हो सकता है। ईश्वर आपने परिणामी बतलाया था, अब अखंड बतलाया। परिणामीको शक्ति बदली खंड होगया, प्रखंड कहां रहा । अखंडको यदि परिणामी कहो तो आप ईश्वरके स्वरूपको ही नहीं समझे । स्वरूपको समझे विना उसके गुणका ख्याल किस प्रकार हो सकता है । जब ईश्वरको अखण्ड बतलाते हो तो जन्य पदार्थ के विषय में मांगे हुए उदाहरण में उसका उदाहरण विषम है। . वादिगजकेसरी जी--आपके केवल इतना कह देनेसे कि 'अन्दरकी क्रियाके लिये यह नियम नहीं है। जख्मके भरने के लिये किमी इन्द्रिय की नावश्यकता नहीं। पेट में मल है परन्तु बदबू नहीं मालूम होती 1, हमारा यह पक्ष कि ईश्वरको एक रस अखण्ड क्रियासे कोई परमाणु टससे मस नहीं हो सकता और एक तरफसे क्रिया देनेसे सब परमाणु एकही ओर दौड़ते चले जायेंगे और एक ओर हरकत देने और दूसरी ओर रोकनेसे ईश्वरकी क्रिया एक रस न रहैगी कैसे खण्डित होता है सो प्राप ही जानते होंगे क्योंकि जब स्वभाव एकसा है क्रिया भी एकसी ही होनी चाहिये और अन्दर की क्रियामें भी विपरीतता नहीं हो सकती। परमात्माको विभ माननेपर भी भिन्न भिन्न परमाणु मों में परस्पर दिशा भेद अवश्य मानना पड़ेगा, चाहे आप प्रलय काल में दिशात्रों ( उत्तर दक्षिण आदि ) की कल्पना न करें पर जब सब परमागा भिन्न भिन्न होनेसे एक ही स्थान में नहीं है वरन आपके सर्व व्यापी सारे परमेश्वर में व्याप्त हैं तो श्राप उनमें परस्पर दिशा भेद न होनेकी बात कैसे कह सकते हैं ? अखगह और परिणामी में विरोध नहीं क्योंकि प्रखगड उसे कहते हैं जिसका खण्ड न हो और सूपान्तरसे परिणाम होता है जिसे खबड होना नहीं कह सकते । जीव कर्मानुसार निज जन्म पारसमें कभी घोड़ा होता है, की मनुष्य और कभी चींटी श्रादि । परन्तु इस प्रकार रूपान्तर होने पर भी कभी जीवके खराड नहीं होते। जब कि हमने आपके माने हुए ईश्वरका ही दृष्टान्त दिया है जो कि परिणामी होने पर भी जन्यत्त्वसे रहित है तो फिर न जाने क्यों आप यह कहते हैं कि उदाहरण विषम है । महात्मन् ! पूर्व ही आपने यह कहा था कि कोई पदार्थ जग्य
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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