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________________ - ( ३ ) वियोग प्रलय । स्वाभाविक क्रिया नियम पूर्वक होती है और वैभाविक क्रिया इच्छा पूर्वक होती है। सूर्य प्रादिक दयाको सष्टि हैं चक्षु आदिक न्यायको । दृष्टान्त म मांगना विषयान्तर नहीं। वादि गजके मरी जी-क्रिपाका फल संयोग और वियोग दोनों कदापि नहीं हो सकते । यदि दुर्जन तोष न्यायसे थोड़ी देरको आपके ईश्वरको स्वाभाविक क्रियाके फल दोनों संयोग और बियोग माने जाय तो यह संयोग और वियोग परमाणुओंके वर्तमान समय में भी समस्त पदार्थों में हो रहे हैं तो इसको सष्ठि और प्रलय क्यों नहीं कहते ! इस बातका क्या प्रमाण है कि कोई समय ऐमा मी आता है कि जब समस्त पदार्थों के परमाणु ओंका वियोग ही वियोग होता है संयोग कदापि नहीं ? यदि थोड़ी देरको माप की प्रलय भी मान ली जाय तो उप प्रलय काल में जब कि ईश्वर की स्वाभाविक क्रिया बरावर होती रहती है तो वह किन परमाणु ओंका ( प्रलयकाल के चार अरव वत्तीस करोड़ वर्षों के समयमें ) संयोग और वियोग करती है क्योंकि यदि संयोग करना भी उस कालमें मानों तो फिर परमासा कारण प्र. वस्था में नहीं रह सकते और वियोग तो हो ही नहीं सकता क्योंकि जब परमाण स्वयं कोरणा अवस्था में भिन्न भिन्न हैं तो वियोग किनका और किससे होगा ? सृष्टि कालके प्रारम्भ होने पर भी भापके ईश्वरकी क्रियासे परमाण परस्पर मिल नहीं सकते क्योंकि एक ही लोहेको जब सब समान शक्ति वाले सम्बक पत्थर सब ओरोंसे अापसमें खींचे तो वह अपने स्थानसे दिल नहीं सकता इसी प्रकार जब कि आपके कल्पित प्रलय काल में प्रापका अखण्ड एक रस सर्व व्यापी ईश्वर एक सी क्रिया दे रहा है तो कोई भी परमाणु प्रपने स्थानसे हिल नहीं सकता अतः उनमें संयोग न हो सकनेसे किसी वस्तु का बनना असम्भव ही है। यदि आपके ईश्वरको स्वाभाविक क्रियासे ही परमाणु मों में मिलन बिछुरन मानाजाय तो कोई भी वस्तु न तो बन सकती हैं और न विगह हो क्योंकि ईश्वरको सब ओरसे एकसी क्रियाके कारण परमाण अपने स्थानसे टस से मस नहीं हो सकते * । थोड़ी देर को मान लेने * इसी दोष से अपने ईश्वरको बचाने के अर्थ स्वामी दर्शनानन्द जी के गुरू जी महाराजने अपने सत्यार्थप्रकाश के २२५ वें पृष्ट पर लिखा है कि जब वह ( परमात्मा ) प्रकृति से भी सूक्ष्म और उनमें व्यापक है तभी उनको पकड़कर जगदाकार करदेता है । परन्तु विचारने का विषय है कि
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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