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________________ (८५) नहीं। जड़ कारण में कार्य की प्राकति का ज्ञान होना सर्वथा असम्भव है। परन्तु जड़ कारण भी संसार में अनेक प्रकार के कार्य किया करते हैं। यदि जगत् साकार होने से ही जन्य है ऐसा मानते हो तो आपको अपने ईश्वर जीव और प्रकृति को भी जन्य मानना चाहिये क्योंकि वे भी सत्र साकार हैं इस अर्थ कि उन्होंने आकाशका कुछ न कुछ क्षेत्र घेरा है यदि उन्हें निराकार मानो तो वे आकाश कुसुम समान अवस्तु होंगे। परमाणु प्राकृतिवाले हैं क्योंकि यदि उनमें प्राकृति न होती तो उनसे बनी बस्तुओंमें आकति कहांसे श्रा जाती। जिस प्रकार कोई मनुष्य घडोके फनरमें चाबी भर देता है और उस से सारी घड़ी के पेच पुर्जे चला करते हैं उसी प्रकार ईश्वर ने सृष्टि रूपी घ. ड़ी के सूर्य रूपी फनर में चाबी भर दी है और उसी से मेघ बनता, वर्षा होती है तथा घास भादि होती है इसमें कौनसा हेतु है यदि कार्यत्व ही हेतु कहा जाय तो वह पूर्व ही कथित मित्र के पांचवे गर्भस्थ पुत्र के श्याम वर्ण होने के समान शङ्कित व्यभिचारी है। जब तक ईश्वर का सृष्टि गर्दषय स्वयं प्रसिद्ध है तब तक उसमें दया और न्यायको सृष्टि कहना बन्ध्याके पुत्र का विवाह कल्पना करने के समान निरर्थक है । जब कि कार्य कारण भाव विना व्यतिरेक सिद्ध हुए होता ही नहीं प्राप परमात्मा में व्यतिरेक का अभाव सिद्ध करते हैं तब परमात्मा और सृष्टि में कार्य कारण भाव कैसे माना जाय अतः सृष्टि अनादि है। स्वामी जी-पंडित जी ने भी कहा था कि क्रियावान ही गति देसकता है अब यह कहना कि गेंद के लौटने की गति दीवार से उत्पन हुई बदतो व्याघात है । जब क्रिपा रहित पदार्थ से गति नहीं पा सकती तो दीवार से गति क्योंकर भाई ईश्वर नित्य है उसकी क्रिया भी नित्य है सं. योग और वियोग दो क्रियाएं नहीं मैं पूर्व बतला चुका हूं कि संयोग और बियोग एक ही कथा के दो फल हैं। एक ही पावर इज्जन से निकली हुई किया जुदी जुदी मशीनों में जाकर जुदे जुदे काम करती है। कहीं काटती व्हीं जोड़ती है इसी ही प्रकार दैविक किया एक है परन्तु जीवोंके बाँके व्यवधान से होने वाली सृष्टि और प्रखयके कारण विरुद्ध फल बाली जान पड़ती है। जिन परमाणुओं का संयोग होगा उनके लिये यह भावश्यक ही है कि उनका वियोग भी हो, इस लिये सृष्टि के बाद प्रलय
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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