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________________ (c) या । जो दूसरे को क्रिया देता है उसमें स्वयं क्रिया होनी चाहिये क्योंकि क्रियाका लक्षण "देशात् देशान्तर प्राप्ति” अर्थात् एक देशसे दूसरे देश में प्राप्त होना है और यह परमात्मा में उनके एकरम सर्वव्यापी होनेसे असम्भव है । यदि थोड़ी देरको आपके ईश्वर में क्रिया मान भी लीजाय तो यह बतलाइये कि क्रिया के स्वाभाविक, वैभाविक अशा च्वा दया, न्याय और कीड़ा आदि अनेक भेदों में से वह कौनसा कर्ता है । यदि ईश्वर में क्रिया स्वाभाविक मानें तो बाप माने हुए वह सृष्टि और मलय दोनोंका कर्ता परस्पर दोनों के विरोधी गुण होतेसे हो नहीं सकता यदि उसमें वैभाविक रीति क मानो तो उस में अशुद्धता पायी जायगी। यदि ऐसा मानो कि उपने अज्ञा दी और परमाणु सूर्य चन्द्रादि रूप बनगये तो ईश्वर के शब्द और परमाणुओं के श्रवण शक्ति होनेका प्रसङ्ग प्राया जो कि ईश्वर के अशरीर और परमाणुओं के जड़ होनेसे अपम्भव है । यदि यह मानो कि ईश्वर के सृष्टि बन जाने की इच्छा हुई और परमाणु उस रूप बनगये तो ईश्वर में विभाव और परमाणुओं में ईश्वरकी इच्छा जान लिने ( चेताव) का प्रसङ्ग मानेसे हो नहीं सकता । यदि यह मानो कि ईश्वर में दया से किया है तो उस क्रियाका फल भी ममस्त जीवोंको सुखदायी होना चाहिये । यदि यह कहो कि ईश्वर में न्यायकी क्रिया है तो रोकने की शक्ति होने पर भी उसने जीवों को ऐसे कर्म क्यों करने दिये जिससे कि उसको न्याय करने की आवश्यकता उत्पन्न हुई । यदि ईश्वर में क्रीहासे कर्तृत्त्व है तो उसमें अज्ञानता आदि दोषोंका प्रसङ्ग श्रावेगा । इत्यादि किसी भी क्रियाके भेद से वह सृष्टि कर्त्ता नहीं हो सकता । जब कि परमात्मा अखण्ड एकरस और सर्वव्यापी माना जाता है तो उनमें एकसी क्रिया होने के कारण कोई परमाणु अपने स्थानसे हिल नहीं ममता । यदि यह कहो कि परमात्माने एक एक बिखरे हुए परमाणुको उठा उठाकर जोड़ा तो ईश्वर के हस्त पादादि अवयव होनेका प्रसङ्ग हुआ जो कि उसके निराकार होनेसे है नहीं । अतः बतलाइये कि सृष्टिके बनाने में ईश्वरका कर्तृत्व कैसे और क्या है। स्वामीजी, - क्रियावान् ही क्रिया दे यह नियम नहीं । चुद्ररु पत्थर स्वयं नहीं हिलता, परन्तु लोहे को हिला देता है। इससे सिद्ध है कि क्रियासे क्रिया उत्पन्न नहीं होती, किन्तु शक्तिसे क्रिया उत्पन्न होती है । इच्छा अ प्राप्त इष्टकी हुआ करती है, कोई पदार्थ परमेश्वरको समाप्त नहीं, इस कारण परमात्मामें इच्छा करना नहीं घटताः । किया दो प्रकारको होती है, एक
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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