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________________ (४४ ) - हम पर दूसरा दोष यह आरोपित कियो गया है कि हम लोग बार बार कहने और लिखने पर भी शास्त्रार्थ से मुंह छिपा रहे हैं। पर यह तो विचारिये कि आर्यसमाजने कब हमको शास्त्रार्थ के अर्थ कहा या लिखा और हम लोग उससे मुंह छिपा गये । हम लोग किसीके ललकारने पर सदैव शास्त्रार्थ के अर्थ उद्यत रहे और हैं जैसा कि सबको हमारे कृत्यों और विज्ञापनोंसे स्वयं प्रगट है। यदि आर्यसमाजको हमारे कृत्य और पिछले विज्ञापनों की वात भल गयी थी तो कमसे कम उसे हालके ही प्रकाशित "भार्यसमाजको खलगयी पोल । शाखार्यके टालमटोल' शीर्षक विज्ञापन की वात तो जरूर याद रहनी चाहिये थी। विधारिये कि उसमें प्रकाशित यह निम्न शब्द शा. स्त्रार्थ से हमारा मंद छिपाना प्रगट करते हैं या उस के अर्थ पूर्ण सन्नद्धता । "विश्वास रहे कि जबतक भार्यसमाज लिखित शास्त्रार्थ न करले या शास्त्रार्थ से इन्कार न करदे तबतक हम उसको उसके किसी भी बहाने या टालम टूल से जोड़ने वाले नही हैं। यदि आर्यसमाज को यह भय है कि श्रीजैनकुमार सभा शाखाका पथोचित प्रबन्ध नहीं कर सकती तो हम अबकीवार प्रा. र्यसमाजके नियत किये हुये स्थान, समय, विषय और प्रबन्ध शास्त्रार्थ क. रनेको उद्यत हैं। परन्तु हम अपना बहुतसा समय इस शास्त्रार्थकी इन्तजा. रीमें नहीं नष्ट कर सकते अतः समाजको इस विज्ञापनके पाते ही हमको यर लिख देना चाहिये कि हमारी श्री जैनतत्वप्रकाशिनी सभा कल के बजे उसके समाजभवन में लिखित शास्त्रार्थको भावे ।" ___.. स्वामी जी और बाबू मिट्ठनलालजीका सभा में कईवार शास्त्रार्थ जारी | रखने के लिये कहना लिखकर सरासर लोगोंको धोखा देना है। तीसरा मन्त्री चन्द्रसेनजी जैन वैद्यका प्रागे होकर तालियां पिटवानेका दोष सर्वथा मिथ्या है क्योंकि उन्होंने शास्त्रार्थ प्रारम्भ होनेसे पर्व एकवार नहीं वरन फवार तालियां पीटने और जयकार बोलने की सख्त मनाही करदी थी। तालियां वहां पर उपस्थित कुछ मूर्ख लोगोंने पीटी थीं और उस के अर्थ वह खव धिक्कारे भी गये थे। मालूम नहीं कि कुछ आर्यसमाजियोंके तालियां पीटने में अग्रेसर होने से उनका क्या अभिप्राय था । उन्होंने अपने स्वामीजीकी जीत समझ कर तालियां पीटी थीं या हार समझ कर । चौथो दोष वादिगाकेसरीजी को कार वार कहने पर भी मुकाविले के लिये तैय्यार न होने और दूरसे भभकिये वताकर सिंह बननेका है। मालन
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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