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________________ (१९) मुझे मार्यधर्म में कौन २ सन्देह थे उनका वर्णन मैं दूसरे समय में भेजंगा। मापका हितैषीः___ दुर्गादत्त उपदेशक जैन भूतपूर्व आर्यसमाज। पिसरूर स्यालकोट] ता० ३९-३-१२ भापके इस सूचनाके प्रकाशित होने पर "कार्य मित्र” के तारीख ८ मई सन् १९१२ ईखीके अङ्क में इन्द्रपाल वर्मा मन्त्रीने मापसे कुछ प्रश्न पूछे जिस के कि उत्तरमें आपकी ओर से द्वितीय आषाढ़ कृष्ण द्वितीया वीर निर्वागाब्द २४३८ के अट्ठारहवें अङ्क के "जैन मित्र" पत्र में तीसरे पष्टपर निम्न घोषणा प्रकाशित हुई। आर्यसमाज को घोषणा । आर्यमित्र में मेरे विषय में कुछ झूठ तथा प्रयुक्त वातोंके साथ कुछ प्रश्नादि भी किये हैं। उन्होंने पूछा है कि आपने जैन धर्म क्यों ग्रहण किया है, औ. र भार्यधर्म किस कारण हेय समझा है। इत्यादि महाशप जी, मुझ को यह पूर्ण विश्वास है कि वेदों में मांसादि की स्पष्ट आजा है, मैं उनको निरुक्तादि कोषोंके द्वारा करके बतला सकता हूं। दूसरे वेद ईश्वरोक्त नहीं हो सकते। यथा पुनरुक्ति दोष, बदतोव्याघात् दोषों से रहित वेद नहीं है मैं यह भी प्रतिज्ञा करता हूं कि उपनिषद् प्रश्नोपनिषद् और सांख्यादि दर्शनके कर्ता ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानते। आपने जो यह लिखा है कि, पाप किस समाजके सभासद् रहे हैं, सो पापको नितान्त भल है। क्योंकि इस समयभी जितने प्रार्य पशिडत पार्यसमाज में कार्य कर रहे हैं, वह किसी खास समाज के सभासद नहीं कहला सकते इसीलिये श्रापका यह प्रश्न व्यर्थ समझ के कुछ उत्तर देने की आवश्यकता नहीं समझता । महाशय जी, मैंने आर्यधर्मको प. रित्याग करके जैनधर्म को ग्रहण क्यों किया, इस विषय के प्रारम्भ करनेको मैं तय्यार हूं। यदि आपके अन्दर साहस है तो आप मैदान में निकलें । मैं जैनमित्रमें उपनिषद् जो कि स्वामी दयानन्द जी ने प्रमाणिक मानी हैं और दर्शनादि शास्त्रोंसे भी यह सिद्ध करने को लेख लिखना भारम्भ करूंगा कि वे आचार्य ईश्वर को जगत् कर्ता नहीं मानते थे। फिर दूसरा द्रव्यों की वि. वेचनापर होगा, वैशेषिककार और जैनधर्म का मुकावला, पुनर मोक्ष नित्य
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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