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________________ ( ११२ ) मिलकर उनके पक्षको स्पष्ट कर सकेगा । प्रथम तो यह नियम नहीं कि गति अग्निसे ही मिले क्योंकि जल, वायु, मनुष्य प्रादि अनेक गति देते हैं । यदि दुर्जन तोष न्याय से अग्निसे हो गति मानी जाय तो फिर जब गति श्रग्नि ही देती है तो फिर आपके ब्रह्मकी क्या आवश्यकता है यदि अग्निमें गति ब्रह्मके द्वारा मानो तो इसमें हेतु क्या क्योंकि जब तक आपके सृष्टिकर्ता ब्रह्मको सत्ता, समस्त वस्तुओं के कार्य्य करने में उनकी छावश्यकता, उपमें गति देनेकी शक्ति और अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध सिद्ध न हो तब कैसे माना जा सकता है। अग्नि और ईश्वर के धर्म विषम हैं क्योंकि अग्नि खण्ड द्रव्य अनेक .परमाणुओं वाला, जड़, अशुद्ध और अनेक रस है और इससे बिरुद्ध ईश्वर अखण्ड द्रव्य एक, चेतन, शुद्ध और एक रस है । इत्यादि । तवैष बाबू मिट्ठनलालजी वकीलने आर्य समाजकी ओर से श्री जैन तत्त्व प्र काशिनी सभा, सर्वसाधारण और गवर्नमेण्ट को धन्यवाद दिया और जैन स माजको प्रोरसे चन्द्रसेनजी जैन वैद्यने स्वामीजी, पटिज़क और सम्राट व स माझी तथा राज्य के समस्त अधिकारियों का आभार माना । सभापतिजीने अपनी उपसंहार वक्तृकृतामें सबको धन्यबाद देते हुए शान्ति से निष्पक्ष होकर शास्त्रार्थका परिणाम निकालने की प्रार्थना की और इतने जन समुदाय में शास्त्राका कार्य निर्विघ्न समाप्त होने पर हर्ष प्रगट करते हुए सानन्द सभा विसर्जित की । चन्द्रसेन जैन वैद्य, मन्त्री श्री जैन तत्त्वप्रकाशिनी सभा set परिशिष्ट नम्बर “ख” । मौखिक शास्त्रार्थ - - इटावा । जो श्रोत म्यायाचार्य पंडित माणिकचन्द जी जैन द्वारा श्री जैन तत्व प्रकाशिनी सभम और सिकन्दराबाद गुरुकुल के अध्यापक पंडित यज्ञदत्त जी शास्त्रो बाय्र्यमें शनिवार ६ जुलाई सन् १९१२ ईश्वीको रात्रिके १०॥ बजे से १२॥ बजे तक स्थान गोदों की नशियां में हजारों लोगों के समक्ष श्रीमान् स्याद्वाद्वारिधि वादि यज केसरी पंडित गोपालदास जी वरैय्या जैनके सभापतिश्व में हुआ ।
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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