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________________ ( ११८ ) वादि गजकेसरी जो प्रथम हो आपने कहा था कि 'संयोग और वियोग दो विरुद्ध क्रियायें नहीं वरन क्रिया के फल हैं क्रिया के दो फल होते हैं संयोग और वियोग' और अब आप कहते हैं कि 'एक पदार्थ की दो मुख्तलिफ क्रिया हो सकती हैं, और छागे चलकर आप कहते हैं कि 'हरकत के दो फल प्रत्यक्ष हैं' यह परस्परस्ववचन वाधितपना क्यों ? यह हम मानते हैं कि एक अशुद्ध द्रव्यमें वाह्य प्र वल उपवधान से भिन्न प्रकारको क्रिया और परिणाम हो सकते हैं पर वैपा होना आपके शुद्ध अखण्ड एक रस ईश्वर में सर्वथा असम्भव है । आपका दूष्टान्त विषम है क्योंकि सूर्य्यका स्वभाव गर्मी देना है न कि किसीको सुख दुख देना । सूर्य्यका दृष्टान्त बिल्कुन विरुद्ध है क्योंकि सूर्य्य गर्मी देने में उदासीन निमित्त कारण है और परमात्माको आप गति देने में प्रेरक कारण मानते हैं । जब तक परमात्माको सत्ता ही प्रसिद्ध है तब तक आप उसको उदासीन निमित्त कारण नहीं मान सकते। अतः दृष्टान्त किसी अंश में नहीं मिलता । क्रिया चाहे अन्दर से दी गयी हो या बाहर से पर उसमें आपको दिशा भेद श्रवश्य मानना पड़ेगा और आपके अन्दर और बाहर यह शब्द ही ऊपर नीचेकै समान: दिशा भेद प्रगट करते हैं । जब कि आपका परमेश्वर परमा में भीतर और बाहर सर्वत्र व्यापक है तथा अखण्ड और एक रस है तो वह केवल भीतर से ही हरकत नहीं दे सकता क्योंकि कहीं कैसी और कहीं कैपी उसकी अवस्था होने से वह अखण्ड और एक रस कदापि नहीं रह स कता । यदि थोड़ी देरको आपकी भीतर से ही हरकत मान ली जाय तो भी सत्रको एकसी हरकत मिलनेपर उनमें संयोग वियोग कदापि नहीं हो स कता क्योंकि यदि हो सकता होता तो प्रलयकाल में भी उम क्रियाके सद्भाव में वैसा वरावर होता रहता । श्रागको अन्दरूनी हरकत से हांडी में चावल पक्रनेका छापका दृष्टान्त विल्कुल विपरीत है क्योंकि दृष्टान्त में अग्गिके खण्ड द्रव्य होने व सत्र ओर से हरकत न देनेके कारण उसके परमाणुओं में निमि तानुसार भिन्न भिन्न देशान्तर प्राप्तिसे चावलोंका भिन्न भिन्न दिशामें गमन होता है और दाष्टन्ति में ईश्वर के अखण्ड एक रस सर्व व्यापी होने से परमाणुओंका वेषा होना असंभव है। चावलों में संयोग और वियोग दोनों होने के कारण उनमें अग्नि की तारतम्यता तथा जलादिके व्यवधान हैं । जब कि आपका ईश्वर एक रन और सर्वव्यापी होने से परमाणुओं के भीतर और बाहर सर्वत्र व्याप्त है तो फिर वह भीतर से ही क्यों हरकत देता है? यह हम
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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