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________________ ( १०१ ) करता है उसी प्रकार इन रागादि भाव कर्म से द्रव्य कर्म और द्रव्य कर्मसे भांव कर्मकी सन्तान बराबर जारी रहा करती है। यदि आप बीजको ( जो कि अनादिकाल से वीज वनको सन्तान प्रति सन्तान सूपसे बराबर चला श्रा रहा है ) भन डालें तो वह नवीन वृक्ष को कदापि उत्पन्न नहीं कर सकता। उसी प्रकार जब यह जीव अपने रागादिकको नष्ट कर देता है तो इसके नवीन कम्मों का बन्ध नहीं होता और प्राचीन कर्म अपनी स्थिति पूर्ण कर या ध्यानाति द्वारा उदीको प्राप्त होकर प्रात्मासे सम्बन्ध छोड़ जाते हैं और सकल कर्मों से विनमुक्त होकर यह आत्मा मोक्षको प्राप्तकर ईश्वर हो जाता है। इस बातको उत्तर कि ईश्वर ऐश्वर्यवाले को कहते हैं बीतराग होकर परमात्मा का ऐश्वर्य पा है यह है कि मारमा अनन्त गुणों का समुदाय है और वे गुण अनादि कालसे ... ... ... (नोट) वादि गजकेसरी जी इतना ही कह पाये थे कि श्रीमान् रायवहादुर पंडित गोविन्द रामचन्द्र जी खांडेकर ( भूतपूर्व असिष्टैण्ट जडिशल कमिसार कक्षा प्रथम ) आदि प्रतिष्ठित पुरुषों के अनुरोधसे सभापति जी ने वादि गजकेसरी जी को विषयान्तर पक्षका उत्तर देगेसे रोक दिया और स्वामी जी से भी प्रार्थना की कि वह विषयान्तर प्रश्न न करें । स्वामी जी व. धिर होने के कारण ऊंचा सुनते थे अतः आर्यसमाज की ओरके अग्रेसर वावू मिट्ठनलाल जी ने स्वामी जी को कई वार विषयान्तर न जाने तथा वादि गजकेसरी जी के प्रश्नका उत्तर देने की प्रार्थना की । ( प्रकाशक ) * . . इस कारण कि सभापति जी के रोक देने से वादि गज केसरी जी स्वामी दर्शनानन्द जी के इस वार किये हुए समस्त प्रश्नोंका उत्तर न दे सके अतः शेष स्वामी जी के प्रश्नोंका उत्तर पाठकोंके अवलोकनार्थ यहां प्रकाशित किया जाता है। वादि गजकेसरी जी संक्षेपतः यह तो बतला ही चुके हैं कि जीव ईश्वर कैसे हो जाता है अतः अव यह सिद्ध किया जाता है कि जीव ही ईश्वर हो जाता है और उसमें हेतु यह है किः-- ज्ञान गुण केवल जीवमें ही है। कोई जीव स्वल्प जानता है और कोई विशेष और जीवोंके जाननेकी कोई मर्यादा नहीं है क्योंकि जिस बस्तुका ज्ञान प्राज असम्भव समझा जाता है कल ही कोई जीव उसका जायक उत्पन्न हो जाता है इससे यह सिद्ध होता है, कि ऐसे भी जीव होंगे जो कि सर्व पदार्थोंको जानते होंगे क्योंकि यह सर्व पदार्थ जो से
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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