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________________ नहीं सकते जीवका मिज कम्र्मानुसार घोड़ा हाथी चीटी मनुष्य मादिके शरीरमें जन्म लेने से परिणामी होने का उदाहरण बिषम नहीं क्योंकि जब जीव वस्तु है तो उसका कुछ न कुछ प्राकार अवश्य है और जब आकार है तो वह समस्त शरीर में एक सा आकारवाला नहीं रह सकता आपको उसे शरीराकारही मानना पड़ेगा। यदि जीव का आकार न मानो तो वह श्राकाश कुसुम समान अवस्तु होगा। जीव शरीराकार ही है क्योंकि जहां जहां जीव है वहीं पर शरीरको छेदने भेदने से जीवको कष्ट होता है जहां जहां जीव नहीं ऐसे नख केशादि स्थानों को छेदने भेदने से जीवको कुछ भी कष्ट नहीं होता ज. ब जीव शरीराकार सिद्ध हो चुका तो भिन्न भिन्न शरीर में जन्म ग्रहण करने और उनकी वृद्धि आदि होने पर उसके प्राकारका परिणामन अवश्य मानना होगा। इसके सिवाय जीवके क्रोधी, मानी, क्षमावान्, मूर्ख, विद्वान, होनेपर भी उसका स्वरूप बदलना अवश्य मानना होगा और ऐसा होने पर भी वह कभी खण्ड खण्ड नहीं होता। अतः शरीर आदिके परिणमनके साथ ही जीवका भी उससे ( दीपक के प्रकाशकी भांति ) प्रदेशों मादिका संकोच विस्तार होने तथा गुणों के अवस्था से अवस्थान्तर होने पर परिणामी होना सिद्ध है। किसी पदार्थ में से आकाशका निकल जाना कहना अत्यन्त हास्यास्पद है क्योंकि आकाश सर्व व्यापी और क्रिया गुण रहित है ऐसा आपके वैशेषिक का मत है अतः आकाश कहीं न निकलकर जहां का तहां स्थित रहता है। जिस वस्तु में जौनसा गुण नहीं वह उसमें दूसरी बस्तु के संसर्ग से कदापि नहीं प्रासकता। जब कि जीव और ईश्वर दोनों रूप ( आकार ) वान् है तब उनमें रूपान्तर ( परिणाम ) होना स्वतः सिद्ध है यहाँ पर ईश्वर शब्दसे श्रा. प अपने माने एक सृष्टिकर्ता परमात्माको समझियेगा । हमारे मतसे तो प्रस्येक कर्म मल मुक्त जीव ही ईश्वर होजाता है हमारा प्रश्न अभी आप पर ज्यों का त्यों खड़ा है। स्वामीजी-रेलमें बैठे हुए हम रोज़ कहा करते हैं कि अजमेर मागया, लाहौर भागया, आगरा आगया, परन्तु क्या वास्तबमें ये नगर पाते हैं ? नहीं, यह कथन उपचारक प्रयोग है। प्राकाशका निकल जाना भी उपचारक प्रयोग है। जब जीव ईश्वर होकर सिद्ध शिला पर सदा के लिये लटका रहा | तो ईश्वर जीव क्योंकर होसक्ता है । जीव ईश्वर होजाता है यह कथन विषम है। ईश्वर कहते हैं ऐश्वर्यवाला, परन्त जैनियोंका जीव तो वीतराग होता है
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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