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________________ जाहिर उद्घोषणा नं० ३. घहां पर सूत्रकी स्वाध्याय नहीं करते थे, इसीतरह से ढूंढिये-तेरहा पंथियोकोभी अशुद्ध जगहमें, शरीर की व वस्त्रकी अशुद्धि में और रजस्वला तथा सूतक में नित्य नियमके कार्य में सूत्रपाठका उच्चारण करना नहीं चाहिये किंतु होट, जबान, दांत न हिलाते हुए मनमें मौनदशामें कार्य करने चाहियें । ७८. फिर भी देखिये- अशुद्ध कर्तव्य वाला, मलीन परिणाम वाला, अशुचि शरीर वाला मनुष्य अपने हाथोंसे खाने पीने की वस्तु दूसरों को देगा तो उसको खाने-पीनेवाले के ऊपर उसकी मलीनता का प्रभाव अवश्य पडता है, यह तत्त्व दृष्टिकी सूक्ष्म बात है इसलिये समझदार लोग मलेच्छ व दुष्ट मनुष्यके हाथ की वस्तु नहीं खाते। इसी तरहसे रजस्वलाके हाथ से बनाई हुई रसोई या हाथोंसे दी हुई भोजनकी वस्तु उनके कुटुंब वालोंको और साधु- साध्वी आदि धर्मी जनों को लेना व खाना पीना योग्य नहीं है । ऐसे ही जन्म-मरणआदि के सूतककाभी परहेज रखना उचितहै । ढूंढिये व तेरहापंथी साधु-साध्वी - श्रावक-श्राविकाओंको इन बातोंका पूरा २ ज्ञान नहीं है इसलिये रजस्वलाके व जन्म-मरण वगैरह के अशुद्धि सूतककी पूरी २ मयार्दाका पालन नहीं करते तथा इनके शास्त्रोंमें इन बातोंकी मर्यादाका विधि विधान का लेखभी नहीं है । तोभी मंदिरमार्गी श्रावक-श्राविकाओंकी देखा देखी लोक लज्जासे कोई २ थोडासा कुछ पालन करते भी हैं परंतु पूरा तत्त्व नहीं समझते और पूरी २ मयार्दाका पालन भी नहीं करसकते इसलिये इनके समाजमें इन बातों की सर्वत्र प्रवृत्ति नहीं है इसीसे महेश्वरी, अग्रवाल, ब्राह्मण, श्रावगी आदि उत्तम जातिवाले लोग इनलोगोंकी मलीनता सम्बन्धी बडी निंदा करतेहुए बिचारे बहुत कर्म बंधन करते हैं। अपने पिंडेको इनको हाथ लगाने छुने नहींदेते, यदि कोई भूलसे हाथ लगा दे तो कई लोग अपने पिंडे (मटके) को फोड डालते हैं बडा झगडा होता है, यहभी हमने कलकत्ता, अमरावती वगैरह में प्रत्यक्ष देखा है । और वे लोग ढूंढिये, तेरहापंथी साधुओंको अपने चौकेके पासभी नहीं आने देते, बडी अप्रीति करते हैं, इसलिये ढूंढिये और तेरहापंथी साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकाओंको खास उचित है कि रात्रिजल, रजस्वला, सुतक वगैरह अपने समाजकी निन्दाके कारणोंको अपने २ समाजमें सब जगह से जल्दी से दूर करके व्यवहारकी शुद्धिसे समाजके ऊपर मलीनता के भ्रष्टताके लगेहुए कलंक को धोकर शुद्ध उज्वलताकी छाप जगतमें बैठावें और लोगोंके कर्म ७०
SR No.032020
Book TitleAgamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherKota Jain Shwetambar Sangh
Publication Year1927
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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