SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जाहिर उद्घोषणा न० २. हूंढियोंको मेरा इतनाही कहनाहै कि जिसप्रकार पांचस्थावर तथा संमूच्छिम के १४स्थानक निगोद आदिमें असंख्य व अनंतजीव ज्ञानियोंनेकहे हैं, उन जीवोंको कोईभी मनुष्य आंखोंसे प्रत्यक्ष नहीं देख सकता, किंतु उनमें तो ज्ञानी के वचनपर श्रद्धा रखकर जीव दयाका व्यवहार किया जाता है. उसी प्रकार विदलमेंभी ज्ञानी महाराजने जीव उत्पन्न होनेका कहाहै, इसलिये ज्ञानीके वचनपर श्रद्धारखकर विदल वस्तु खानेका त्याग करना योग्य है और प्रत्यक्ष जीव देखनेकी कुयुक्ति करना मिथ्यात्वका हेतु होनेसे व्यर्थ है। २९. साधुको ठहरनेके लिये मकान देने वाले मालिकका घर शय्यातर होता है, उसके घरका आहार आदि साधुको लेनेकीसर्वतीर्थकर महाराजोंकी मनाईहै, ढूंढिये साधु लोग मकानके मालिकका घर शय्यातर न करतेहुए मकानमें ठहरनेकी आज्ञा देनेवाले नौकर या पाडोसी आदि अन्यका घर शय्यातर करके मकानके मालिकके घरका आहारादि लेतेहैं, यहभी सर्वथा शास्त्र विरुद्धहै । बडे आदमीके अनेक नौकर होतेहैं उसमेंसे एक नौकरका घर शय्यातर मानकर खुद मालिकके आहारादि लेनेसे दृष्टिरागसे छ कायकी हिंसा वाला सदोष आहार मिलताहै, प्रमाद बढ जाताहै उससे दूरके घरोंमें आहार आदिके लिये जानेमें आलस्य आताहै और मकान मिलनेकी दुर्लभता वगैरह अनेक दोषलगतेहैं, जिनाशाकी विराधनाहोतीहै इसलिये यह रिवाजभी त्याग करने योग्यहै। . ३०. ढूंढिये साधु-साध्वियों के स्वास ठहरनेके लिये स्थानक बनाने में आते हैं, उसमें भी छ कायकी हिंसा होतीहै, आधाकर्मी दोष आताहै, जिनाशाका उल्लंघन होताहै । स्थानको ठहरनेके कारणसेही स्थानक वासी नाम प्रसिद्धहै, यहभी छ कायकी हिंसाका हेतु त्याग करने योग्यहै। - ३१. ढूंढिये साधु लसण-कांदे आदि अनंत काय ( कंदमूल ) की चटनी वगैरह ले कर खातेहैं, फिर निर्दोष ठहराने के लिये 'दशवैकालिक' सूत्रका प्रमाण बतलातेहैं यहभी पूरी २ अज्ञानताहै, क्योंकि देखो-जो साधु तपस्वी शरीरकीभी ममत्वरहित समभाव वाला पूरा २ निर्दोष लूखा सूखा निरस आहारसे अपना संयमका निर्वाह करने वाला होवे, वह साधु अनुक्रमसे अपरिचय वाले अज्ञात घरों से जैसा
SR No.032020
Book TitleAgamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherKota Jain Shwetambar Sangh
Publication Year1927
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy