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________________ . जाहिर उद्घोषणा. प्रत्यक्ष झंठहै किसीभी आगममें हमेशामुंहपात्री बांधीरखनका नहीं लिखा. पाठकगण ढूंढियोंके आगम प्रमाणकी बातोंके थोडेसे नमूने देखें १ भगवतीसूत्रके १६ वे शतकके दूसरे उद्देशमें शक्रंद्रके अधिकार में शकेंद्र अपने मुंहआगे हाथ या वस्त्र रखकर बोले तो निर्वद्यभाषा बोले, ऐसा भगवान्ने फरमायाहै. इसबातको आगेकरके दूढिये साधु अपने मुखपर हमेशा मुंहपत्ति बांधनेका ठहरातेहैं, सो उत्सूत्र प्ररूपणाहै, क्योंकि भगवान्ने जीवदयाके लियेही बोलनेके समय उसी वख्त मुंहआगे वस्त्ररख ने की आझादीहै सो इस आज्ञा मूजिब चलनेवालोंको बोलनेके समय अपने मुंहआगे वस्त्र रखना योग्यहै परन्तु इस आशाके विरुद्ध होकर अपने मुंहपर हमेशा बांधनेका ठहरानेवाले भगवानकी आशा उत्थापन करतेहैं. देखिये विचारकरिये-अगर भगवान् बांधनेमें लाभजानते तो मुंहआगे रखनेका कभी न बतलाते किन्तु बांधनेकाही बतलाते मगर हमेशा बांधनेमें अनेक दोष लगतेहैं इसलिये बांधनेकी आज्ञा न दी, जिसपरभी अपनी मति कल्पनासे हमेशा बांधनेका ठहराने वाले प्रत्यक्ष झूठा हठाग्रह करतेहैं। . २ इन्द्र के आधिकारवाले पाठ से मुंहपर बांधने का अर्थ निकालोगे तो इन्द्रकेभी बांधनका ठहरजावेगा. अतित-अनागत-वर्तमान कालमें अनंत इन्द्रहोगये वो सर्व तीर्थकरमहाराजोंकी सेवाभक्तिमें हरसमय आतेहैं परन्तु किसीभी इन्द्रने अपना मुंह बांधा नहीं, इसलिये जैसे इन्द्र बोलते समय मुंहआगे वस्त्र रखताहै. वैसेही ढूंढियोंकोभी इन्द्रकी तरह बोलते समय अपने महआगे वस्त्र रखना योग्य है. मुंहआगे वस्त्र रखनेका दृष्टांत बतलाकर फिर बाँधनेका ठहरानेवाले मायाचारीसे भोलेजीवों को उन्मार्ग में डालते हैं, और भगवती सूत्र के नामसे बडा अनर्थ करते हैं। ३ भगवतीसूत्रके ७ वे शतक के ३३ वे उद्देशमें 'जमाली' के दीक्षा के अधिकारमें तथा शाताजीसूत्रके प्रथम अध्ययनमें 'मेघकुमार' के दीक्षाके अधिकारमें जमालि-मेघकुमारके दीक्षासमय लोचकरने योग्य चारअंगुल केशरखकर बाकीके शिरके केश काटनेके समय राजकुमारोंको अपने नाककी दुर्गधि न लगने पावे इसलिये गृहस्थी नाईयोंने धनके लोभ व राजाओंकी आज्ञासे धोती-दुपट्टे जैसे वस्त्रके मुखकोशसे थोडीदेरके लिये नाक और मुंह दोनोंबांधकर राज्यकुमारोंके केश काटेथे, इस प्रमाण को आगे करके ढूंढिये साधुपनेमें हमेशा मुंहपत्ति बांधीरखनेका ठहराते
SR No.032020
Book TitleAgamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherKota Jain Shwetambar Sangh
Publication Year1927
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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