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________________ * श्री वीतरागाय नमः * श्री हीर विजय जी सूरि स्तुति GrgKBAD आओ पात्रो अाज ज़रा उस भव्य मूत्ति का ध्यान धरें, जिसने क्लेश अशेष सहे भारत-हित, उसका स्मरण करें। था जो राग रहित सन्यासी-पर था राष्ट्रीय राग उसे, इसी लिये विचरा करते थे वे मुनिवर निज कमर कसे ॥१॥ न थी सवारी साथ, न था कोई निज नौकर चाकर ही, किन्तु पर्यटन करते थे वे शिष्यवर्ग को लेकर ही। सुख की उनको चाह न थी, पर सुखी जगतको चाहते थे, मातृभूमि हित आत्मत्याग का निज प्रण सदा निबाहते थे ।२। बनकर सत्याग्रही वीर वे लेकर खड्ग अहिंसा की, काटा करते निशदिन विस्तृत बड़ी जड़ें वे हिंसा की। फहराई थी जिनकी जग में "विजय-जयन्ती” किसी समय, धन्य धन्य बे मुनिवर, जगगुरु, सूरीश्वर श्री हीरविजय ॥३॥
SR No.032019
Book TitleHirvijaysuri Stuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Traict Society
PublisherAtmanand Jain Traict Society
Publication Year1927
Total Pages10
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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