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________________ परिशिष्ट पर्व. [सातवा 'महेश्वरदत्त' अपने मनमें यह समझता था कि मेरेसा दुनिया में कोई ही सुखी होगा इस प्रकार खुशी मनाता हुआ जारसे उत्पन्न हुवे उस पुत्रको महीषका मांस खिलाता है । इधर 'महेश्वरदत्त' की माता जो छलकपट करनेसे मरके कुतिया हुई थी वह भी मांसकी इच्छासे वहांपर आपहुँची । 'महेश्वरदत्त' ने भी उस 'कुतिया' को आई देखकर समांसमहीषकी अस्थियां उसके आगे फेंक दी । अपने पतिके जीव महीषकी हड्डियोंको खाती हुई मारे खुशीके ऐसी पूँछ हलाती थी जैसी रातके समय मंद पवनसे दीपककी शिखा हलती है । जिस वक्त यह सब बनाव बन रहा था उस वक्त दैवयोगसे मास क्षपणके पारने भिक्षाके लिए एक महामुनि अभ्यागत वहांपर आ पधारे । जैनमुनियोंका यह अमूल होता है कि जब वे कहीं भी और किसीके भी घरपर जाकर भिक्षा ग्रहण करते हैं तब वे अपने ज्ञानमें उपयोग देते हैं और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर योग्य भिक्षा ग्रहण करते हैं । इस लिए उस महामुनिने उपयोग देकर अपने अतिशय ज्ञानबलसे उनका सर्व वृत्तान्त जान लिया और सोचने लगे कि देखो इस संसारकी कैसी विचित्र गति है जो यह 'महेश्वरदत्त' अपने पिताका मांस अपने शत्रुको गोदमें बैठाकर खवा रहा है और अपने पतिकी अस्थियां खाती हुई यह 'कुतिया' किस प्रकार आनन्द मना रही है । अहो ! धिक्कार है इस असार संसारको जिसमें रहकर पाणी मोहके वश होकर अनन्त अकृत्योंको करते हैं, इस प्रकार संसारकी असारताको विचारते हुवे वे महात्मा भिक्षा न लेकर वहांसे पीछे लौट गये। उन महात्माओंको अपने घरपर आये पीछे जाते देखकर 'महेश्वरदत्त' उठकर शीघ्रही महात्माके पीछे दौड़ा और उनके पास जाकर
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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