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________________ परिशिष्ट पर्व. [सातवाँ. धर्मके विचार अभी 'गाङ्गिला' के दृढ न हुवेथे, इस लिए 'गाङ्गिला' ऐसी स्वच्छन्द चारिणी होगई जैसे जंगलमें रहनेवाली मृगी स्वेच्छापूर्वक विचरती है, क्योंकि एकान्त स्थानमें रहनेवाली अकेली स्त्रीका तक सतीत्व पल सकता है । 'गाङ्गिला' किसी एक जारपुरुषके साथ यथेच्छ और जब कभी 'महेश्वरदत्त' कहीं बाहर जाता है तब उस अपने जारपुरुषके साथ यथेच्छ क्रीड़ा करती है परन्तु लोकमें यह कहावत है कि-सौ दिन चोरके और एक दिन साधका । एक दिन 'गाङ्गिला' जब अपने जारपुरुषके साथ अपने घरपे यथेच्छ क्रीड़ा कर रही थी तब दैवयोगसे अकस्मात बाहि रसे 'महेश्वरदत्त' दरवाजेपर आ पहुँचा । 'महेश्वरदत्त' को देखके 'गाङ्गिला' तथा जारपुरुषके प्राण खुस्क हो गये, उस वक्त उन दोनो की बड़ीही विचित्र दशा होरही थी, दोनोंका शरीर थरथरा रहा था, दोनोंकी जंघायें काँप रही थीं, केश बिखरे हुवे थे, व भी शरीरपर एकही था वहभी ऐसा कि जिससे अपने संपूर्ण शरीरको न ढक सकें, शरीर काँपनेसे पाँव कहीं रखते थे और कहीं पड़ता था । इस प्रकार वे बिचारे दोनोंही कान्दिशिक हो रहे थे, ऐसी दशामें 'महेश्वरदत्त ' ने आकर शीघ्रही उस जारपुरुषको रीछके समान केशोंसे पकड़ लिया और जारी करनेका उसे यथार्थ फल भुगताने लगा । ' महेश्वरदत्त ' ने निर्दय होकर उसे ऐसा मारना शुरू किया जैसे कसाई गायको मारे और - जमीनपर लाडकर उसे पाँहोंसे ऐसा मसला कि जैसे ' कुम्हार ' घड़े बनाने की मिट्टीको मसलता है, विशेष क्या कहा जावे 'महेश्वरदत्त' ने उस ' गाङ्गिला' के जारको अधमरा करके छोड़ दिया क्योंकि इन्सानको चोरपर भी वैसा कोप नहीं आता जैसा
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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