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________________ [सातवाँ परिशिष्ट पर्व. मेरे देवरका वह पिता है इस लिए मैं उसे अपना श्वशुर भी कहती हूँ । इस बालककी जो माता है वह मेरी भी माता लगती है क्योंकि मेरा भी जन्म उसीकी कुक्षिसे हुआ है। मेरे चाचाकी वह माता लगती है इस लिए मेरी पितामही (दादी) लगती है। और मेरी भाईकी पनि होनेसे वह मेरी भावी भी लगती है । मेरी सौकनके पुत्रकी पत्नी होनेसे वह मेरी पुत्रवधु भी होती है। मेरे पतिकी माता होनेसे वह मेरी सासु भी निस्संदेह है और मेरे पतिकी वह दूसरी स्त्री है इस लिए मेरी सौकन भी लगती है । 'कुबेरदत्ता' ने 'कुबेरदत्त' को इस प्रकार अठारह नातोंका संबंध समझा कर उसके नामाङ्कित अँगूठी 'कुबेरदत्त' के सामने फेंक दी, 'कुबेरदत्त' उस अंगूठीको देख कर अपना सर्व वृत्तान्त खयमेव समझ गया और सखेद मनमें पश्चात्ताप करने लगा, 'कुबेरदत्ता' के बोधसे संवेगको प्राप्त होकर जैनमतकी दीक्षा ग्रहण की और दुस्तप तपस्यायें करके कालकर स्वर्गकी देवांगनाओंका अतिथि जा हुआ और 'कुबेरसेना' नेभी श्राविकावत अंगीकार कर लिया, साध्वी 'कुबेरदत्ता' सपरिवार अपनी प्रवर्तनीके पास चली गई । संसारमें इस प्रकार जो प्राणी चीकने कर्मरूप बंधनोंसे बँधे हुवे हैं उन्हीं मूढ़ जनोंकी शुक्तिमें रजतके समान बन्धु बुद्धि होती है संसारमें न तो कोई किसीका बंधुही है और न कोई शत्रु, सारीही दुनियाँ अपने अपने स्वार्थको रोती है । इस लिए हे प्रभव ! जो स्वयं बंधुओंसे रहित हैं और अन्य जनोंको बंधुओं तथा बंधनोंसे मुक्त करानेवाले ऐसे क्षमा श्रमण (साधु) लोग हैं वेही सच्चे बन्धु हैं उनके सिवाय अन्य सभी नाम मात्रकेही बन्धु हैं । 'प्रभव' बोला ये सबही बात सत्य हैं परन्तु श्रुति कहा कि
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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