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________________ परिच्छेद.] अठारा नाते. ७५ मालूम होता है कि हम दोनों कहीं विदेशमें जन्मे हैं और हमारा दोनोंका बहिन-भाईका संबन्ध होना चाहिये क्योंकि इस अपने पति 'कुबेरदत्त'को देख कर मेरे मनमें विकार उत्पन्न नहीं होता और मुझे देख कर इसके हृदयमें भी पनीभाव उत्पन्न नहीं होता। न जाने क्या दैव घटना बनी है यह कुछ मालूम नहीं पड़ता परन्तु निश्चय करके हम दोनोंमें भगिनी भातृभाव होना चाहिये । मैं तो यही अनुमान करती हूँ कि हमारी माता अथवा पिताने प्रेमवश होकर हमारे नामांकित ये मुद्रिकायें बनवाई हैं अन्यथा एक आकार और एकही लिपि कभी नहीं होसकती । 'कुबेरदत्ता' ने यह निश्चय करके वे दोनोंही मुद्रिकायें 'कुबेरदत्त' के हाथमें पकड़ा दीं, 'कुबेरदत्त' भी उन एक आकार और एकसी. लिपिवाली मुद्रिकाओंको देखकर चिन्तामें पड़ गया परन्तु उसने भी अपने मनमें पूर्वोक्तही निश्चय किया अत एव उन मुद्रिकाओंको 'कुबेरदत्ता' को देकर शीघ्रही अपनी माताके पास गया और शपथपूर्वक यह पूछा कि माता! सत्य बताओं मैं तुमारे अंगसे पैदा हुवा तुमारा पुत्र हुँ ? या गोदलिया हुआ हूँ ? या मेरे माता-पिताओंने मुझे त्यागदिया था तुमने पाला हूँ ? अथवा कोई अन्य हूँ ? क्योंकि, पुत्र कई प्रकारके होते हैं । जब 'कुबेरदत्त' ने इस प्रकार आग्रहपूर्वक पूछा तब उसकी माताने 'सन्दूक ' की प्राप्तिसे लेकर सर्व वृत्तान्त कह सुनाया 'कुबेरदत्त' बोला कि माता? जब तुम्हें यह मालूम था कि ये दोनों एक माताकी कुक्षीसे पैदा हुवे हैं फिर जानकर यह अकृत्य करना उचित नहीं था। माता बोली पुत्र! हम तुमारे रूपसे मोहित. होगये तुमारे लावण्यके सदृश 'कुबेरदत्ता' के सिवाय अन्य कोई भी कन्या न देख पड़ी और मेरे सिवाय उसके अनुरूप वरभी नहीं
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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