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________________ परिशिष्ट पर्व. [ पांचवाँ शीघ्रही रथ तैयार कराया । जिस उद्यानको गणधर भगवान अपने चरणारविंदोसे पवित्र करते थे उस उद्यानमें जाकर 'जंबूकुमार'ने सानन्द भक्तिपूर्वक श्री ' सुधर्मा' स्वामीको नमस्कार किया और योग्य स्थानपर बैठके उनके मुखारविंदसे सुधाके समान उनकी धर्मदेशना सुनी | गणधर भगवानकी देशना सुनकर 'जंबूकुमार' को एसा वैराग्य हो गया कि वह संसारको तृण समान समझने लगा । देशना समाप्त होनेपर 'जंबूकुमार' हाथ जोड़कर भगवान सुधर्मा स्वामी सामने इस प्रकार विज्ञप्ति करने लगा कि हे भगवन् ! आपकी देशना सुनकर मेरे हृदयरूप मंदिर में विवेकरूप दीपक प्रगट हो गया है और उससे मैंने संसारकी असारता पैछान ली है अत एव इस दुःखमय असार संसार में रहनेकी मेरी इच्छा aritra मैं भ्रम के समान आपके चरणकमलोंकी सेवा करूँगा । मैं अपने मातापितासे आज्ञा ले आऊँ आप कृपा कर जबतक यहांही विराजें | गणधर भगवान श्री ' सुधर्मा' स्वामीने यह बात मंजूर करली क्योंकि सन्त पुरुष परप्रार्थनाका भंग नहीं करते । अब जंबूकुमार गुरुमहाराजको वन्दन करके मातापिताकी आज्ञा लेनेके लिए रथमें बैठकर घरको चल पड़ा, 'जंबूकुमार' शहर के दरवाजेपर आकर देखता है तो वहां पर इतनी भीड़ देख पड़ी कि दरवाजेके अन्दर से एक आदमीभी न निकल सकता था इस लिए 'जंबूकुमार' ने विचार किया कि मैं गुरुमहाराजको ठहराकर आया हूँ और यहां मुझे देरी लगनेका संभव है अत एव इस दरवाजेको छोड़कर दूसरे दरवाजेसे नगरमें जाना योग्य है । 'जंबूकुमार' ने यह विचार कर शीघ्रही नगर के दूसरे दरवाजेकी ओर रथको फिरवाया | परन्तु दैव योगसे वहांपरभी जाकर देखता है तो
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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