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________________ परिशिष्ट पर्व. [पहला शय्यासे उठकर राजसभामें गया और अपने बड़े भाई प्रसन्नचंद्रसे नम्रतापूर्वक बोला कि हे राजन् ! मुझे पिताके दर्शनोंकी अत्यन्त उत्कंठा लगी हुई है अत एव मैं उसी जंगलमें जाना चाहता हूँ जो पिताश्रीके चरणारविंदोंसे पवित्र है । यह सुनकर राजा "प्रसन्नचंद्र" बोला कि हे भाई पिताके दर्शनोंकी चाहतो मुझेभी है क्योंकि, जब पिताश्रीने संन्यस्त ग्रहण कियाथा तबसे मैंनेभी उन्होंके दर्शन नहीं किये अत एव चलो दोनोंही चलें । यह कहकर राजाने सवारी तैयार कराई और दोनोंही सपरिवार पिताके दर्शनोंके लिए नगरसे चल पड़े । कुछ देरके बाद उसी जंगलमें जा पहुँचे जहांपर सोमचंद्र तापस रहताथा, "वल्कलचीरी" उस जंगलकी शोभा देखकर राज्यलक्ष्मीको तृण समान समझने लगा और वहांके सरोवरोंको देखके विचारता है कि, ये वही सरोवर हैं जिनमें मैं हंस के समान क्रीड़ा किया करताथा ये वही वृक्ष हैं जिनके फल में वानरके समान तोड़कर खाताथा ये भैसेंभी वही हैं जिनका मैं दूध माताके समान पीता रहा और ये मृगभी वही हैं जिनके साथ भाईके समान मैं क्रीड़ा करता रहताथा । ऐसे विचार करता हुआ "वल्कलचीरी" प्र. सन्नचंद्रसे कहने लगा कि, हे राजन् ! नेत्रोंको आनंद देनेवाले इस जंगलमें जो मुझे सुख है उसका मुझेही अनुभव है उसमेंभी पिताकी शुश्रूषारूप जो सुख है वह मुझे राज्यमें कहां प्राप्त होसकता है ? । - इस प्रकार बातें करते हुए दोनो भाई पिताके आश्रममें प्रवेश कर गये और पिताके समीप जाकर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । प्रसन्नचंद्र अपने मस्तकसे पिताके चरणोंको स्पर्श करता हुआ बोला कि हे तात! आपका पुत्र प्रसन्नचंद्र आपको नमस्कार
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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