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________________ १४ परिशिष्ट पर्व. [ पहला फलोंसे विलकुल परांमुख होगया । क्यों न हो, जिसने आजनमसे गुड़तकभी नहीं देखा उसे एकदम खाँडके फल मिल जाने - पर ऐसा होना ही था । वेश्याओंने वल्कलचीरीको एकान्तमें ले जाकर अपने अंगका स्पर्श कराया और उसके हाथ पकड़कर अपनी छाती पर रक्खे | स्त्रियोंका शरीर स्वभावसेही कोमल होता है उसमें छातीका भाग विशेष कोमल होता है अत एव कोमल शरीरका स्पर्श होनेसे वल्कलचीरी बोला कि, हे महर्षियो ! तुमारा शरीर इतना कोमल क्यों है ? और तुमारी छातीपर दोनों ओर पके हुए आम्रफलके समान कोमल कोमल उन्नत भाग क्यों हैं ? अपने हाथोंसे वल्कलचीरीके अंगको स्पर्श करती वेश्यायें बोलीं कि हे ऋषिकुमार ! हमारे आश्रम में ऐसे वृक्ष हैं कि उनके फल खानेसे कठोर से कठोरभी शरीर हमारे जैसा कोमल होजाता है और उन्हीं फलोंके खानेसे छातीपर दोनों तरफ ऐसा कोमल मांस बढ़ जाता है अत एव है. ऋषिकुमार ! तुमभी इन निरस फलों का खाना छोड़के हमारे सदृश बनो । व्यवहारको न जाननेमें पशुके समान विचारे " वल्कलचीरी " ने खाँडके लड्डूओंसे मोहित होकर उन धूर्त वेश्याओंके साथ जानेका संकेत कर लिया । अब " वल्कलचीरी " वहांसे अपने आश्रम जाकर पिताके लिए जो जंगलसे फल वगैरह लाया था उन्हें रखकर वेश्याओंके कहे हुवे संकेत स्थानपर जा पहुँचा, वेश्यायें उसे साथ लेकर अभी चलनेकी तैय्यारीही करती थीं इतनेमेंही कहीं अरण्यसे आते हुए दूरसे सोमचंद्र तापसको देखा और उसके शापके डरसे " वल्कलचीरी " को वहांही छोड़कर तित्तर बित्तर होकर भाग गई । सोमचंद्रको आश्रममें जानेपर
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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