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________________ सोलहवाँ परिच्छेद ॥ Lo XWS शय्यंभवसूरि और मणकमुनि. st /EN RS AKER त् पश्चात् कात्यायन कुलोद्भव श्रीप्रभवस्वामिने तीर्थकी प्रभावना करते हुए भूमितलको पवित्र किया । एक दिन साँजकी आवश्यक क्रियासे फरागत हो रातके समय योग निद्रामें स्थित होकर श्रीप्रभवस्वामी अपने मनही मन विचारने लगे कि मेरे बाद श्री संघको संसारसागरसे पार उतारनेमें जहाजके समान और जिनेश्वर देवके कथन किये धर्मरूप 'अम्भोज' को विकसित करनेमें मूर्यके समान इस मेरे पदके योग्य कौन है ? । इस विचारमें मग्न होकर श्रीमभवस्वामीने अपने श्रुत ज्ञानमें उपयोग देकर साधुसमुदाय तथा श्री संघमें देखा, मगर दैवयोग उस वक्त उन्हें साधुसमुदाय तथा समस्त संघमें कोई भी आदमी ऐसा नजर न आया, जो उनके पदके योग्य हो और जिनेश्वर देवके धर्मकी प्रभावना कर सके, अत एवं उन्होंने फिरसे अपने ज्ञानभानुसे अन्य दर्शनमें उपयोग दिया क्योंकि कीचड़में पड़ा हुआ भी रत्न ग्रहण
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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