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________________ १७० परिशिष्ट पर्व. [पंदरवाँ सुधर्मास्वामीको भक्तिपूर्वक हाथ जोड़के दूरसेही नमस्कार किया । पश्चात् विधिपूर्वक वन्दन कर गणधर भगवानके चरणकमलोंकी रज अपने मस्तकपर चढ़ाकर भक्तिशालियों में अग्रेसरी राजा 'कूणिक' भगवान सुधर्मास्वामिके मुखारविन्दकी ओर दृष्टि देकर शिष्यके समान उनके सन्मुख बैठ गया । करुणासमुद्र गणधर भगवान श्रीसुधर्मास्वामिने संसारि जीवोंके ऊपर अनुग्रह कर धर्मदेशना देनी प्रारंभ कर दी, गणधर भगवानकी धर्मदेशना समय पुस्करावर्त मेघसा बरसता था । सुधाके समान धर्मदेशना सुनकर बहुतसे भव्यात्मा धर्ममें जुड़ गये और कितनेएक लघुकर्मि जीवोंने गणधर भगवानके चरणारविन्दोमें असार संसारको लात मारके दीक्षा ग्रहण की । देशना समाप्त होनेपर गणधर भगवानके शिष्योंकी ओर देखता हुआ राजा 'कूणिक' जंबूस्वामिकी ओर इशारा करके बड़ी नम्रतासे बोला-भगवन् ! इस महामुनिका ऐसा अद्भुत रूप, ऐसा सौभाग्य और ऐसा अद्भुत तेज है कि जिससे इस महात्माके दर्शन मात्रसेही मनुष्योंका चित्त ऐसा आकर्षित होजाता है जैसे मालतीके पुष्पको देखकर भ्रमर । यमुना नदीकी तरंगोंके समान तो इस महात्माके स्याम वर्णवाले केश हैं, नेत्र कानोंतक लंबे और विकसितारविन्दके समान मनोज्ञ हैं, नासिका तोतेकी चौंचके सदृश है, भाल (मस्तक) बड़ा विशाल है, गरदन लंबी और सीधी है, भुजायें मृणाल दण्डके समान सरल और गोडोंतक लंबी है, मध्य भाग इतना पतला है कि एक मुछिमें ग्रहण होसकता है, जंघायें कदलीके समान है, पैरोंकी ऊँगलियोंके नख बिजलीके सदृश चमक रहे हैं, कहांतक ज्यादा वरनन करें हमें तो यह मालूम होता है । चंद्रमाकी सौम्यता और सूर्यका तेज लेकर विधाताने
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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