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________________ १५८ परिशिष्ट पर्व. [चौदहवाँ. मेरे मातापिता की ऐसी गरीब हालत थी कि हमारे घर हमारे सर्वस्वके समान एकही चार पाई और एकही बिछौना था, संध्या समय होनेपर मैंने वह चार पाई और बिछौना उस ब्राह्मणपुत्र ' चट्ट' को दे दिया । रात अँधेरी थी, मैंने विचार किया कि अपने घर एकही खाट थी और वही अभ्यागतको दे दी, अब मेरे सोनेका क्या होगा ? घरकी भूमि तो ऐसी है, कई दफा सर्प भी फिरा करता है, इस लिए भूमिपे तो सोना उचित नहीं । अत एव इसी चार पाईपर पाँयतों की ओर सोजाऊँ, अँधेरी रातमें कौन देखता फिरता है ? | यह विचार कर मैं निर्विकार तया ' चट्ट' के पासही एक ओर सोगई । मेरे अंग स्पर्श से 'चट्ट' के हृदय विकारने स्थान किया, परन्तु लज्जावश होकर उसने मुझसे कुछ भी चेष्टा न की । उसके मनोमन्दिरमें जो विकारात्रि पैदा हुई थी, उसका यहांतक प्रबल जोर बढ़ गया कि उसके रोकने से उस ब्राह्मणपुत्र 'चट्ट' के हृदयमें दुसह्य सूल उठा और उसकी वेदनासे वह शीघ्र कालधर्मको प्राप्त होगया । मैं उसके मृतक शरीरको देखके बड़ी घभराई और अपने मनही मन बड़ा पश्चाताप करने लगी कि देखो मुझ पापात्मा के दोष से यह विचारा ब्राह्मणपुत्र यमराजका अतिथि होगया । अब मैं क्या करूँ ? घरमें अकेली हूँ किसके सामने इस दुःखको रोऊँ ? और कैसे इस मुरदेको घरसे बाहर निकालूँ ? | जब मैं इस सोच विचार में पड़ी थी तब मुझे एक उपाय सूझ आया, वह यह था, जहां वह चारपाई बिछि हुई थी, उसके पासही मैंने एक बड़ा खड्डा खोदा और उस मुरदेके औजार से ( शस्त्रसे) टुकड़े टुकड़े करके निधानके समान उस खड्डे में दबा दिया । लाशको दबाकर उस जमीनको ऊपरसे साफ़ करके लीप दिया और पुष्प सुगंधादिसे उस स्था
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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