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________________ १४२ परिशिष्ट पर्व. -- ग्यारवाँ. मेरे यहां आना पड़ेगा, क्योंकि आप हरएक बातमें कुशल हैं और विधि विधानके भी जानकार हैं, इस लिए आपके आये विना कार्य ठीक नहीं होगा । 'जिनदास' ने उसका वचन स्वीकार करके उसे विसर्जन किया । प्रेमगर्मित वाणीसे 'जिनदास' उस मायावी श्रावकसे बोला-भाई! मुझे अवश्य इसके घरपे जाना पड़ेगा और यहां कोई घरकी रक्षा करनेवाला है नहीं, इसलिए भाई ! आप मेरे घरपे रहना, मैं प्राय कल प्रातःकाल यहां आ जाऊँगा । कुछ मुस्कराके उस कपटी श्रावकने 'जिनदास' का कहा मंजूर कर लिया । सरलाशय विचारा 'जिनदास' उस धूर्तको अपने घरका रक्षक बनाके अपने संबंधियोंके महोत्सवमें जा स्यामिल हुआ । उस दिन रातको नगरमें कौमुदी महोत्सव था, इस लिए नगरवासि स्त्री-पुरुष उस रातको चंद्रमाके चाँदनमें मस्त होकर नगरमें गाते नाचते फिरते थे । अवसरको पाके उस दुरात्मा कूट श्रावकने निःशंक होकर वहांसे उस घोड़ेको खोलके उसके ऊपर चढ़के उसे लेजाना चाहा । घोड़ा उस दुराशयकी एड लगतेही जिस रास्तेसे सरोवरपे पानी पीनेको जाया करता था, उसी रास्तेकी ओर चल पड़ा, उस धूर्तने बहुतही लगाम खींची मगर आजतक उस घोड़ेंने सरोवरके सिवाय अन्य रास्ताही न देखा था । इस लिए वह इधर उधर न जाकर उसी मार्गसे रास्ते जिनेश्वर देवके मन्दिरको तीन प्रदक्षिणा देकर सीधा सरोवरपे जा खड़ा हुआ । उस धूर्त श्रावकने फिर उसे मारना कूटना शुरू किया । घोड़ा फिरसे उसी रास्तेसे पीछे भागा और पूर्ववत रास्तेके जिनालयको तीन प्रदक्षिणा देके अपने स्थानपर आ खड़ा हुआ । इस प्रकार रातभर उसी रास्तों चक्कर लगाता रहा परन्तु बहुतसे प्रयत्न करनेपर भी तथा उस धूर्तकी मार खानेपर
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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